यह तो सर्वविदित है कि वेदाङ्गों में ज्योतिषशास्त्र सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है। इस शास्त्र के बल पर ही जगत् का शुभाशुभ ज्ञात हो सकता है। इस शास्त्र के मुख्य तीन भाग [१. सिद्धान्त, २. संहिता, ३. होरा ] है। ये तीनों भाग महर्षियों द्वारा प्रणीत होने के कारण ही जीवन में होने वाली घटनाओं का सत्य परिचय देने में पूर्ण समर्थ होते हैं। इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। सिद्धान्त, संहिता इन दोनों के लक्षण तत्तद् ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ होरास्कन्ध के अन्तर्गत है। अतः जिज्ञासा होती है कि होरा किसे कहते हैं ? उत्तर- ‘होरार्थ शास्त्रं होरा तामहोरात्रविकल्पमेके वाञ्छन्ति । अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रो होरा शब्देनोच्यते’ अहोरात्र शब्द के पूर्व वर्ण (अ) तथा पर वर्ण (त्र) का लोप करने से होरा शब्द निष्पन्न होता है। पुनः यह जिज्ञासा होती है कि अहोरात्र शब्द से ही होरा शब्द क्यों निष्पन्न होता है। उत्तर – प्रवह वेग से १ दिन में ही १२ मेषादि राशियां उदित होकर अस्त होतो हैं अर्थात् दिन रात्रि में काल के वश से १२ राशियों का भ्रमण होता है काल अहोरात्र के अन्तर्गत होता है। इन्हो को लग्न भी कहा जाता है। लग्न के आधार पर ही शुभाशुभ फल का ज्ञान जिस शास्त्र से होता है अर्थात् जीव की जन्मकालीन ग्रहस्थिति अथवा तिथि नक्षत्रादिकों द्वारा उसके जीवन के सुख दुःखादि का निर्णय जिस शास्त्र से होता है उसे होराशास्त्र या जातक या जातक शास्त्र कहते हैं।
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