दोहा-परम पुरुष घट घट रम्यो, ज्योतिरूप भगवान ।। सकल ऋद्धि सुख दैन प्रभु, नमति मेष धरि ध्यान ।।१।। बाहन जाको हंस सित, और सिह शिव तीय ।। शिवा भवानी शारदा, सकल एक नहि बीय ।।२।। चरण नमो युग तासके, आगमवानी दाह ।। तिस प्रसाद इस ग्रंथको, रचों सकल सुखबाइ ।।३।। चौपाई-गुरुसमान जगमहं नहि कोई । मूरख पंडित करता सोई ।। ज्यों दीपक मंदिरतम नासत। गुरु ज्ञान अज्ञान विनासत ।।४।। षट्पदछंद-सकल वस्तुको भेद ज्ञान बज्ञान बतावत। नरक स्वर्गकी बात और शिवपद दिखलावत ।। ब्रह्मा विष्णु महेश ताहि गति कोइ न जानत। सो प्रसाद लहि है जु गुरुके वचन पिछानत ।। तीन लोक ब्रह्म रच्यो मृत्यु स्वर्ग पाताल सबि । सो गुरुकी किरपा दिसे बंदत मेघत्रय काल कवि ।।५।। दोहा-ज्योतिष- ग्रंथ अपार मग, जानत इक जगदीश ।। मानव सुर जानत नहीं, ताते मो मति कीश ।।६।। सोरठा-ज्योतिष घनो अपार, मूक आदि परखन जगत ।। विषमहि सम आचार, कालहु कालहि विधि सगन ।।७।। दोहा-ज्योतिषग्रंथ समुद्र है, ताकी ले इक बिंदु ।। मेधमाल मेषै रची, प्रगटै जिमि जग चन्दु ।।८।। सोरठा-मेघ कहत ए बात, उच्च ऋषीश्वर वचन गहि ।। होवो जर्ग विख्यात, सब कविजनकी कृपासू ।।९।। दोहा- ज्योतिषग्रंथ न जान हाँ, नहि जानत व्याकणं ।। पिंगल पढधो में अमरमति, नहि छंदोकी धनं ।।१०।। हीन कहीं जिहि मात कुछ, भाषी अधिकी जोइ ।। करी कृपा कवि मोपरै, लेहु सुधारी सोइ ।।११।। सुर अहिवानी अतिगहन, मूरख समझत नांह ।। तिनके समझन हेत धर, सुगम रची में याह ।।१२।। चौपाई मेघविचार प्रथम ए थाई। जैसे डक्वे कही बनाई ।।
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