प्रिय पाठकगण ! आप सब महाशयों को विदित ही होगा कि, चारों वर्णो की शि प्रणाली बतलानें वाला दिव्य पुस्तक वेद है और उसके शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निम्म छंद और ज्योतिष यह छः अङ्ग हैं और षडङ्ग वेद पढ़ना ब्राह्मणोंसे लेकर वैश्यों पय तीनों वर्षों का धर्म है। उसंही हमारे शिरोधार्य वेदका एक अङ्ग जो ज्योतिष है उगने= दो भाग हैं फलित और गणित और उसमें से गणित भाग आजपर्यत इसी द्वीप में न किन्तु द्वीपान्तरों में भी परम प्रतिष्ठाका स्थान है; यद्यपि उस सनातन गणित को जानने वालों की संख्या भारतवर्ष में बहुत थोड़ी है तथापि कोटिशः धन्यवाद है उस ईश्वरक जिसने अपनी दयालुता से परम पुनीत विश्वेशपुरी श्री काशी क्षेत्र में गणित शास्त्र के पारङ्ग चंद्रमा के समान अपनी कौशल्यकलाओंसे गणित समुद्रके प्रवाह को बढाने वाले अद्यश्वः काशिर राजकीय संस्कृत विद्यालय में गणित शास्त्र के अध्यापक महामहोपाध्याय श्री विद्वद्वयं सुधाकर, जी को प्रकट किया है और इनहीके कारण मिथिलादेश में भी गणित शास्त्र का प्रचार है। परंतु अन्य देशों पर यदि दृष्टि डालकर देखा जाय तो हमारे सनातन गणित शास्त्र को परिपूर्ण रीति से जानने वालों का मिलना अति कठिन पड जाता है। यदि कोई गणित के चतुर मिल भी जायें तो प्रायः पढाने में ध्यान नहीं देते हैं। इस कारण सनातन गणित जानने की इच्छा करने वालों के मनोरथ उत्पन्न होकर हृदय में ही लीन हो जाते हैं इस कारण यह दारुण प्रचार दूर करने के निमित्त मेरे द्वारा श्रीयुत सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास जीने लीलावती की टीका बनवाई है। प्रियवर ! लीलावती वह पुस्तक है, जिसको इस ही द्वीपके नहीं किन्तु द्वीपान्तरके भी आवाल वृद्ध सब ही विज्ञ पुरुष नाम से जानते हैं। यह पुस्तकः आजकल सनातन गणित का प्रथम सोपान है। इसी कारण सर्वत्र प्रचार करने के निमित्त उक्त सेठजी के पत्रानुसार मैंने इस लीलावती ग्रंथका “स्वरूपप्रकाश” नाम को सान्वय हिन्दी टीका निर्माण की और ईश्वरकी कृपादृष्टि से छपकर भी तैयार हो गई। इस पुस्तकके पुनर्मुद्रणादि सब अधिकार मैंने सेठ खेमराजजी को समर्पण कर दिये हैं। अब आशा है कि, गुणग्राहक सज्जन पुरुष इसको अवलोकनकर मेरे परिश्रमको सफल करेंगे और वैदिक धर्मावलम्बियोंको तो इसको स्वाध्याय करना अत्यन्तही आवश्यक है, क्योंकि ज्योतिष शास्त्र वेदका नेत्र है “ज्योतिषं नयनं स्मृतम्”
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