कालसर्प योग का नाम ही अतीव आतंक, अनवरत अभाव, अन्यान्य अवरोध, असीमित अनिष्ट, अप्रत्याशित असफलता और अनायास अनाचार के अनेक दुर्दमनीय दारुण दुःखों तथा दुर्भाग्यपूर्ण दुर्भिक्ष का पर्याय बन गया है जो नितान्त भ्रामक, निरन्तर अपवादों, अनर्गल वक्तव्यों, विकृत विचारों तथा असत्य तथ्यों पर आधारित है। यह उन सशक्त, सारस्वत, शाश्वत संकल्पों का साकार स्वरूप है जो इस परम रहस्यमय योग के फलाफल के विषय में अपेक्षित, प्रामाणिक तथा शास्त्रसंगत सघन सामग्री के प्रचुर अभाव के कारण अंकुरित हुए। सघन संज्ञान प्लावित रचना की सरसता एवं मादकता, मन मस्तिष्क को तभी आन्दोलित करती है जब कृति स्थापित मान्यताओं, मिथ्या धारणाओं और भ्रांतिपूर्ण परंपराओं को विचलित व प्रकम्पित कर दे। कालसर्प योग से सम्बद्ध सारगर्भित सूत्रों के अध्ययन, अनुभव, अनुसंधान के उपरान्त शास्त्रसंगत, वेदगर्भित प्रामाणिक अनेक शोध-परिज्ञान व अनुसंधान सर्वप्रथम इसी पुस्तक में समायोजित करने की सशक्त, सतर्क व सघन चेष्टा की गयी है।
कालसर्प योग के बहुआयामी परिणाम, परिहार के सैद्धान्तिक एवं समाधानात्मक विश्लेषण द्वारा अन्तर्विरोधों और प्रस्फुटित प्रतिष्ठित सूत्र तथा शोध को प्रतिपादित कर रहा है कालसर्प योग : शोध संज्ञान। सतर्क शोध, गम्भीर चिन्तन तथा तलस्पर्शी अध्ययन के माध्यम से कालसर्प योग कृत अवरोध एवं तत्सम्बन्धी सम्यक् शोध के उपरान्त शास्त्रगर्भित, वेदविहित तथा आचार्य अभिशंसित मंत्रों, स्तोत्रों के विधिसम्मत अनुष्ठान के सम्पादन द्वारा कालसर्प योग : शोध संज्ञान अग्रांकित छह भागों में विभाजित एवं व्याख्यायित है :
1. सृजन संज्ञान : सिद्धान्त खण्ड, 2. परिहार परिज्ञान : समाधान खण्ड, 3. अनुष्ठान विधान शान्ति विधान खण्ड, 4. मंत्र मंथन: नवग्रह परिहार खण्ड, 5. अभीष्ट प्राप्ति विविध विधान : विस्तृत मंत्र मीमांसा खण्ड, 6. केमद्रुम योग शमन : अभिज्ञान खण्ड
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