द के छः अंगों को वेदाङ्ग कहते हैं, उनमें एक अंग ज्योतिष है- शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां चितिः । ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते ।।
९. शिक्षा- वेदमन्त्रों के उच्चारण को सिखाने वाला तथा उसके
देवता आदि को बताने वाला विषय (अङ्ग) ‘शिक्षा’ कहलाता है
२. कल्प– कर्मकाण्ड या अनुष्ठान-पद्धति का ज्ञान जिस अंग से
होता है, उसे ‘कल्प’ कहते हैं। यज्ञशाला, कुण्डमण्डपादि-निर्माणसम्बन्धी
विषय कल्प के ही अन्तर्गत आते हैं।
३. व्याकरण- व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेन इति व्याकरणम् ।
४. निरुक्त – वेद के कठिन शब्दों की निर्वचनपरक व्याख्या को
‘निरुक्त’ कहा गया है। इसमें शब्दों की व्युत्पत्ति समझायी जाती है।
५. छन्दः शास्त्र- छन्दों की रचना का नाम छन्दः शास्त्र है।
६. ज्योतिष- उचित समय पर वैदिक कर्मकाण्ड तथा लौकिक कार्य
हेतु शुभ मुहूर्त्त बताने वाला अंग ज्योतिष है। वेदाङ्गज्योतिष- वेदाङ्गज्योतिष के नाम से ‘ऋग्ज्योतिष’, ‘यजुष् ज्योतिष’ तथा ‘अथर्वज्योतिष’- ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं ।
ऋक् ज्योतिष-
ज्योतिष- इसमें यज्ञ-यागादि के लिये नक्षत्र-पक्ष-मुहूर्त्त-अयन आदि का कथन किया गया है। लग्न के लिये नक्षत्रलग्न का ही व्यवहार किया गया है। इसमें पञ्चवर्षीय युग का उल्लेख है। इसमें माघ शुक्ल प्रतिपदा से युग का आरम्भ गिना जाता है और पाँच वर्षों के पश्चात् पौष कृष्ण अमावस्या को (मुख्य मान से) युग की समाप्ति होती है। युगारम्भ के समय धनिष्ठा (वासव) नक्षत्र के साथ सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों योग को प्राप्त होते हैं स्वराक्रमेते सोमाऽक यदा साकं सवासवौ । स्यात्तदादि युगं माघः तपश्शुक्लोऽयनो ह्युदक् ।।
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