प्रणम्य शिरसा देवं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम् ॥ 1 ॥
भावार्थ – किसी भी ग्रंथ के शुभारंभ से पूर्व ईश वंदना अर्थात मंगलाचरण की सुदीर्घ परंपरा रही है। आचार्य चाणक्य ने भी उस परंपरा का निर्वाह किया है। वे कहते हैं कि मैं तीनों लोकों के स्वामी तथा सर्वसमर्थ अपने इष्टदेव को प्रणाम करता हूं तथा अनेक शास्त्रों में वर्णित राजनीति के सिद्धान्तों का उन ग्रन्थों से उधृत करके यहां बखान कर रहा हूं।
अधीत्येदमर्थशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः ।
धर्मोपदेश विख्यातं कार्याऽकार्य शुभाऽशुभम् ।। 2 ।।
भावार्थ – श्लोक में ग्रन्थ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए चाणक्य कहते हैं कि मेरे इस अर्थशास्त्र को पढ़कर उन्नत स्तर के सत्पुरुष को धर्मशास्त्रों में धर्मोपदेश के रूप में निरूपित शुभाशुभ की तथा करणीय और अकरणीय कार्यों की जानकारी हो जाती है।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञातमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ।। 3 ।।
भावार्थ – मैं लोगों के हित की कामना से राजनीतिशास्त्र के सिद्धान्तों का बखान करूंगा।
मैं कह सकता हूं कि मेरे इस ग्रन्थ में वर्णित सिद्धान्तों को अच्छी तरह जानने वाला व्यक्ति राजनीति में पारंगत होने का दावा कर सकता है।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ॥ 4 ॥
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