हमारे ऋषियों ने आश्रय और आवास के लिए गृहादि की आवश्यकता और अनिवार्यता को जानकर जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, वह वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत प्रसिद्ध है। इसमें जीवनोपयोगी प्रत्येक स्थान के चयन से लेकर उनके निर्माण तक के विविध नियम, सिद्धान्त-निर्देशों का समावेश मिलता है। माना जाता है कि यज्ञ-भूमि के चयन, वेदी-निर्माण ने इस शास्त्र की आवश्यकता को जन्म दिया और बाद में यह सर्वजनोपयोगी होता चला गया; किन्तु यह भी सच है कि यज्ञ से पूर्व ही आवास, आश्रय की कल्पना हो चुकी थी और वृक्षावास छोड़कर मानव भूमिवास का निश्चय कर चुका था। वायुपुराण और समराङ्गणसूत्रधार के सहदेवाधिकार में इस आशय की सुन्दर कल्पना मिलती है।
न केवल उत्तरभारत; अपितु दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तक वास्तुग्रन्थों का प्राप्त होना यह सिद्ध करता है कि यहाँ लगभग प्रत्येक क्षेत्र में इस शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रसार था। वस्तुतः सांस्कृतिक भारत में स्थापत्य धरोहर के विकास में इस शास्त्र ने अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारत ही क्या, विश्व की समस्त सभ्यताओं में मिले इमारतों के अवशेषों में इस शास्त्र की फलश्रुति का अनुभव किया जा सकता है। आवश्यकता यदि इस शास्त्र का आधार रही तो अनुशासन इसके विकास का हेतु, और नाना कलाओं के रङ्ग ने इसे अलङ्कृत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
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