युगयुगान्तरों से मानव सत्यानुसन्धान के लिये ही निरन्तर प्रयत्नशील रहा है। सत्यलाभ ही मानव का अन्तिम लक्ष्य है। तभी तो वैदिक ऋषियों ने उदात्त कण्ठ से उद्घोषित किया है- ‘सत्यमेव जयते’ ।
इस दृश्यमान जगत् में सत्य वस्तु कौन-सी है? जीव, जगत् तथा इसके रचयिता का तत्त्वतः क्या स्वरूप है ? दुःख सन्तप्त जीव की दुःखनिवृत्ति का क्या उपाय है ? इन्हीं प्रश्नों के समाधान में भारतीय दर्शनों का आविर्भाव हुआ है।
परमात्मा की असीम अनुकम्पा से शैशव से ही मुझे एक ऐसी दिव्य विभूति की छत्रच्छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनके अध्यात्म-ज्ञानालोक की निर्मल कान्ति आज भारत में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित हो रही है। ये महान् विभूति हैं- साक्षाद् भगवतीस्वरूपा श्री श्री आनन्दमयी माँ ।
अध्यात्मपथ के प्रदर्शक भारतीय वैदिक दर्शनों की मूर्तिमती विग्रह-स्वरूपा श्री श्री माँ के चरणतल में रह कर भारतीय दर्शनों के प्रति आकृष्ट होना अत्यन्त स्वाभाविक बात है। मुझे बाल्यकाल से ही भारतीय दर्शनों के प्रति एक सहज आकर्षण था। प्रायः मैं दार्शनिक ग्रन्थों का सामान्य अध्ययन किया करती थी। श्रद्धेया डा० पद्मा मिश्रा के प्रोत्साहन से तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक श्रद्धेय डा० श्रीनारायण मिश्र जी के विद्वत्तापूर्ण अध्यापन से मैं दर्शन विषय लेकर एम०ए० (संस्कृत) में भलीभाँति उत्तीर्ण हुई। श्रद्धेय मिश्रजी के प्रोत्साहन से ही दर्शन के किसी विषय पर शोधकार्य करने के लिये उत्साहित हुई।
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