वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानाञ्च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥
शिवत्व से परिपूर्ण जीवन हेतु एवं दोनों लोकों में श्रेय तथा प्रेय की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ-चतुष्टय की सिद्धि को जीवन का लक्ष्य कहा गया है। चारो पुरुषार्थों की सिद्धि गृहस्थ द्वारा सम्पन्न होती है। वट वृक्ष के सदृश गृहस्थ की छत्र-छाया में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं सन्यासी का पालन होता है तथा उसके धर्म-सम्मत कर्म धर्म के साथ-साथ अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रदान करते हैं।
गृहस्थ के सभी कर्मों का सम्पादन गृह के बिना सम्भव नहीं है। शास्त्रों के अनुसार दूसरे व्यक्ति के भूमि एवं भवन में किये गये सभी कर्म निष्फल होते हैं एवं उन कर्मों का पुण्य फल भूमि एवं भवन के वास्तविक स्वामी को प्राप्त होता है। अतः स्वकीय गृह गृहस्थ की प्राथमिक आवश्यकता है-
परेगेहे कृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः ।
विफलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते ॥ (भविष्यपुराण)
संस्कृत साहित्य में गृह निर्माण का विवेचन करने वाले वास्तु-शास्त्र का विशाल भाण्डार निहित है। यह शास्त्र मूलत: वेदों से उद्भूत है। अथर्ववेद के शाला-सूक्त (३/ १२, ९/२३) वैदिक वास्तु-शास्त्र के बीज हैं। पुराणों एवं आगम ग्रन्थों ने इन्हीं बीजों को आगे चल कर पल्लवित किया। इस सन्दर्भ में मत्स्य पुराण में वर्णित १८ आचार्यों का स्मरण समीचीन होगा जिन्होंने वास्तुशास्त्र का उपदेश किया-
भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदौ नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः ॥
ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती ॥
अष्टादशैते विख्याताः वास्तुशास्त्रोपदेशकाः ॥
वेद से निस्सृत वास्तु-विद्या अपने पल्लवन काल में प्रमुखतः दो धाराओं में विभक्त होकर सामने आती है-नागर परम्परा अथवा उत्तर भारतीय वास्तु-परम्परा तथा दूसरी द्राविड परम्परा अथवा दक्षिण भारतीय वास्तु-परम्परा। औदीच्य परम्परा के मूल आचार्य विश्वकर्मा हैं
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