बेदके छः अंग हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । इनमेंसे सर्वोत्तम अंग नेत्रसंज्ञक निर्मल निष्कलंक ज्योतिष ही है, जिसको प्राचीन ऋषियोंने सिद्धान्त (गणित ग्रन्थ) संहिता (मुहूर्त आदि) होरा जातक, ताजिक आदि फलादेश ( इन तीन स्कन्धोंमें प्रगट किया । इसके विना समस्त श्रोत स्मार्त (वैदिक एवं धर्मशास्त्रोक्त) कर्म सिद्ध नहीं हो सकते, इसलिये संसारके उपकारार्थ ब्रह्माजीने इसे वेदनेत्र करके कहा, इसी हेतु (यज्ञादि वैदिककर्म करनेवाले) द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों) को इसे यत्नसे पढनेकी आज्ञा है। अन्य शास्त्रोंमें विवाद बहुत है, प्रत्यक्ष फलोदय ऐसा नहीं है जैसा प्रत्यक्ष चमत्कृत ज्योतिष है, जिसके साक्षी सूर्य, चन्द्रमा, उदयास्त, श्रृंगोन्नत्यादि हैं। शिक्षामेंभी लिखा है कि-“शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्त श्रोत्रमुच्यते ।। छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पान् प्रचक्षते ।। ” इति । समस्त अंग प्रत्यंग परिपूर्ण होते हुए भी जैसे नेत्रोंके विना समस्त अन्धकार ज्ञात होता है वैसे ही इनके विना समस्त साधन निरर्थक है। वसिष्ठसिद्धान्तका भी वाक्य है कि “वेदस्य चक्षुः किल शास्त्रमेतत् प्रधानतां- गेषु ततोऽर्थजाताः । अंगेर्युतान्यैः परिपूर्णमूत्तिश्चक्षुविहीनः पुरुषो न किचित् ।।” इत्यादि बहुत प्रमाणवाक्य हैं पर वर्तमान समयमें बहुधा वर्तमानसामयिक महाशय कहते हैं कि, ज्योतिष कुछ वस्तु नहीं है, भूतकालमें ब्राह्मण ही विद्यावान् रहे। सुज्ञ होनेसे उन्होंने यह पारिणामिक दूरदर्शी विचार किया कि यदि हमारी सन्तान विद्या पराक्रमादिकोंसे अल्पसार हो जायगी तो क्या वृत्ति आजीवन करेगी ? इसलिये ज्योतिशास्त्र बनाया कि, जिससे सबको प्रतीत हो एवं ब्राह्मणोंको ही मानें इत्यादि बहुतसे वाद प्रतिवाद करते हैं। तथापि जानना चाहिये कि, यह शास्त्र किसने आरम्भमें बनाया और कब बना? यह तो सर्वसाधारण जानते ही है कि, जो खगोल भूमिमान (पैमाया) सूर्य चन्द्रग्रहण आदि गणित एवं दिन रात्रि पक्ष, मास वर्ष आदि काल सब ज्योतिषहीसे तो प्रकट है, रहा फलादेश पक्ष, सो यह प्राचीन ग्रन्थ- कर्ता आचार्योंकी बुद्धिमत्ता है, कि, सब जीवमात्र अपने अपने कर्मानुसार फल पाते हैं, यह तो प्रगट ही है परन्तु वह कर्म एवम् उसका परिणाम अदृश्य है,
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