Vivah me Badha
विवाह समस्त संस्कारों में गौरवशाली एवं महत्वपूर्ण माना जाता है। मनुष्य इससे गृहस्थाश्रम को प्रारंभ करता है। इसके बिना मनुष्य अधूरा माना जाता है। सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह विवाह के माध्यम से ही संभव होता है। आज का समाज धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पर निर्भर है। अतः विवाह को पुरूषार्थ का मूल माना जाता है, इस संस्कार के द्वारा दो शरीर नहीं अपितु दो आत्माओं के जन्म-जन्मांतर का मिलन कराया जाता है। यहीं से व्यक्ति गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के लिए आगे बढ़ता है और जीवन भर अपने कर्तव्यों की बलिवेदी पर चढ़कर अपना सारा जीवन गुजारता है।
भंवरो की गुनगुन, चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूंक जब पूरे वातावरण को गुंजायमान कर देती है, जब पेड़-पौधे नवल पत्तों के हरे-भरे रंगों से अपने आपको सजा-संवार लेते हैं, जब तितलियां झूमती हुई, फूलों पर इधर-उधर भ्रमण करने लगती है, जब हिरन भी कस्तूरी की सुगंध से आकर्षित हो इधर-उधर नाचने-कूदने लगते हैं, तो फिर संपूर्ण प्रकृति रंग-बिरंगे रंगों से सुशोभित हो पूर्ण श्रृंगार युक्त दिखाई देने लगती है, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही हो, खिलखिलाती, मुस्कुराती अपने पूर्ण सौन्दर्य के सायें.
क्योंकि किसी के आने की आहट उसके कानों में पहले से ही सुनाई देने लगती है, उसके श्वासों की सुगंध पुरवाई बनकर चारों ओर महकने लगती है, जिसके लिए वह सजी है, जिसके लिए उसने स्वयं को सुंदर और आकर्षित करने वाले वस्त्रों से सजाया है और जिसकी प्रतीक्षा में रत, वह पूर्ण श्रृंगार युक्त हो आंखें बिछाये खड़ी है, क्योंकि उसने उसके जीवन में चैतन्यता दी है, जीवन्तता दी है, प्राणश्चेतना दी है, वह उसी को तो निहार रही है, अपने सुंदर, कटीले नेत्रों से एकटक, इतनी कोमलता और सौन्दर्य को देख मेघ भी हर्षित हो उठते हैं और बरस उठते हैं |
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