Vastu Muktavali
प्रणम्य भारतीं श्रीशं शिवं भानुं गजाननम्। रच्यते विदुषां प्रीत्यै वास्तुमुक्तावली मया ॥१॥
श्रीसरस्वतीजी, श्रीविष्णुजी, श्रीशंकरजी, श्रीसूर्यनारायणजी तथा श्रीगणेशजी को प्रणाम करके विद्वानों की प्रसन्नतार्थ मैं वास्तुमुक्तावली को बनाता हूँ ॥ १ ॥
गृहनिर्माणहेतुमाह (वास्तुराजवल्लभे)
स्त्रीपुत्रादिक भोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदम्, जन्तूनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम् ।
वापीदैवगृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते, गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्रीविश्वकर्मादयः ॥ २ ॥
स्त्रीपुत्रादिक के भोग के सौख्य को देनेवाला, धर्म, अर्थ और काम को देनेवाला, जीवों के निवास करने का स्थान, सुख का स्थान, शीत, जल और धूप रो बचाने वाला, वापी और देवालयादि के पुण्य को देनेवाला गृह है, इस वास्ते पहले गृह का ही निर्माण करना विश्वकर्मादि देवताओं ने कहा है ॥ २ ॥
वर्गवर्गाधिपाः (मुहूर्तभूषणे)
अष्टवर्गा अकाराद्याः पूर्वादिस्थानमाश्रिताः । गरुडश्च विडालश्च सिंहः श्वा नागमूषकौ ।। ३ ।।
हस्ती मेषश्च ते तेषां पञ्चमा वैरिणो मताः । शुभश्चतुर्थो विज्ञेयः समाः शेषाः प्रकीर्तिताः ।॥ ४ ॥
पूर्वादि दिशाओं में अकार आदि आठ वर्ग स्थित हैं और पूर्वादि दिशाओं के गरुड, विडाल, सिंह, कुत्ता, सर्प, मूषक, हस्ती, मृग और मेष क्रम से आश्रित (स्थित) हैं, इनका अपने से पाँचवा शत्रु है और चौथा शुभ है, शेष सम हैं।॥ ३-४ ॥
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