Shri Vana Durga Patal
यह वनदुर्गा पटल पुस्तक अतिप्राचीन होने पर भी प्रायः अब तक इसका मुद्रण व प्रकाशन नहीं हो पाया है। यद्यपि आर्त्त जिज्ञासु, अर्थार्थी अनुष्ठानी साथक इस ग्रन्थ में लिखित प्रयोगों का अपनी आवश्यकता, रुचि तथा योग्यतानुसार उपयोग करते चले आ रहे हैं और ग्रन्थ के उल्लिखित फलश्रुति की उपादेयता से आकर्षित होकर इसका प्रचार भी बहुतायत से है तथापि तन्त्र-मन्त्रों को गोपनीय रखने के संस्कार वश अब तक परम्परा प्राप्त लेखों से ही काम चलाये जा रहे थे। इस ग्रन्थ में वैदिक तथा तान्त्रिक दोनों प्रकार के मंत्रों का साथ-साथ सन्निवेश किया गया है। मनुष्यों की अपनी-अपनी प्रकृति तथा रुचि की विभिन्नता के कारण कामनाएँ भी विभिन्न प्रकार की होती हैं। उनकी पूर्ति सौविध्य के लिये इस ग्रन्थ में अनेक प्रकार के प्रयोगों का समावेश किया गया है, इसी से इसकी उपादेयता इतना प्रशस्त है।
इस वाराणसी नगरी के मास्टर खेलाड़ीळाल संकटाप्रसाद’ एक प्रमुख. व्यवस्थित तथा अति प्रसिद्ध पुस्तक-प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता नागरिक हैं। बहुत दिनों से इनके यहाँ लोग जिज्ञासा करते चले आ रहे थे कि आपके पास ‘चनदुर्गा’ पुस्तक है या नहीं। लोगों की अधिकाधिक जिज्ञासा तथा माँग होने से आपकी दृष्टि इस ओर कुछ विशेष आकर्षित हुई। अतएव ये उक्त वनदुर्गा पुस्तक की खोज- अनुसंधान में लगे ।
संयोग से इनको एक प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक का पता मिला, जिसको आपने प्राप्त किया। प्राचीन लेख क्रमागत हस्तान्तरित होने के कारण उसमें क्वचित् भ्रमात्मक पद तथा अशुद्धियाँ परिलक्षित होने पर आपने मुझसे संशोधन तथा सम्मार्जन कर देने का अनुरोध किया। आपकी सदाशयता से आभारी होकर मैंने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। अतएव यथासाध्य अपनी स्वल्प परिज्ञा के अनुसार यंत्र एवं मन्त्रों का संशोधन तथा मार्जन कर दिया है और उसके अतिरिक्त टिप्पणी रूप से एक अनुबन्ध भी संयोजित कर दिया है, जिसमें पुस्तक का परिचय तथा प्रयोग के विषय में आनुषंगिक चर्चा की गई है। संशोधन कर देने पर भी कदाचित् भ्रम, प्रमादादि अथवा कंटक दोषजन्य अशुद्धि या त्रुटि रह जाने पर सुविज्ञ पाठक कृपया सुधार लेंगे।
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