भगवान शिव का सम्पूर्ण चरित इतना विराट है कि उन्हें समझ पाना कभी भी और किसी भी देव के लिये भी सम्भव नहीं रहा होगा, एक आम व्यक्ति की क्या सामर्थ्य जो इसे समझ सके। भगवान शिव का जो चरित पुस्तकों, ग्रंथों के माध्यम से हमारे सामने आता है, वह सम्पूर्ण का एक बहुत छोटा, बहुत ही छोटा सा भाग है और इस छोटे से भाग को समझने के लिये भी व्यक्ति की सोच-समझ और बुद्धि छोटी पड़ जाती है। भगवान शिव के जीवन के जिस भाग को समझने का प्रयास किया जाये, उसी को समझने में जीवन व्यतीत हो सकता है, फिर भी ऐसा अनुभव होता है कि नहीं, अभी भी बहुत कुछ शेष है। जब ब्रह्मा और विष्णु ही शिवजी का आदि-अन्त जानने में विफल रहे और जितना सा जान पाये उसमें भी एक लम्बा समय व्यतीत हो गया, तब कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि शिवजी का न आदि है और न अन्त है, वे सर्वस्व में व्याप्त हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा व्यक्ति के जीवन का कोई भाग इससे अछूता नहीं है।
भगवान शिव देव होने के बाद भी अन्य सभी देवों से अलग हैं। वे मानव मात्र के एकदम निकट दिखाई देते हैं और ऐसा लगता है कि केवल उन्होंने ही मानव के कल्याण की शपथ ली हो। अनेक सन्दर्भों में वे मानव व्यवहार के एकदम साम्य व्यवहार करते दिखाई देते हैं। पिता के द्वारा अश्वमेध यज्ञ में सती के द्वारा देह त्याग के पश्चात् उनके शव को अपने कन्धों पर लिये वह प्रेम में विह्वल हो यहाँ-वहाँ भटकते हैं, उनकी मृत्यु से जितना वे दुःखी होते हैं, उससे वे देव न होकर मानव ही दिखाई देते हैं। इसके बाद समुद्र मंथन के समय सागर के गर्भ से निकले हलाहल को उन्होंने ही समस्त सृष्टि के कल्याण के लिये अपने गले में धारण किया और नीलकण्ठ हो गये। अगर इस हलाहल को उन्होंने न पिया होता तो तीनों लोकों की क्या स्थिति बनती, इसके बारे में कोई सामान्य मानव भी विचार करना नहीं चाहेगा। सगर पुत्रों को जीवनदान देने के लिये जब भगीरथ ने तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर आने के लिये राजी कर लिया, तो गंगा के वेग को भी उन्होंने ही अपनी जटाओं में धारण किया।
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