भारतीय ज्योतिषशास्त्र के विशाल परिवार में स्वरशास्त्र भी एक सदस्य है। देव- वाणी संस्कृत के व्युत्पत्तिशास्त्र के अनुसार स्वर शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से है। एक तो ‘स्वर’ धातु में ‘अच्’ प्रत्यय जोड़कर तथा दूसरे ‘स्व’ धातु में ‘अप्’ प्रत्यय जोड़- कर। स्वर के अनेक अर्थ हैं। जिनमें— शब्द, ध्वनि, संगीत के सप्त स्वर, वर्णस्वर, स्वराघात तथा श्वास-वायु मुख्य हैं। लय को भी स्वर कहा जाता है। ‘स्वर्यते शब्धते वर्चस्स्वरूपेणोपतप्यतेऽनेनेति स्वरः’ अर्थात् जो शब्दायमान होता है तथा ऊष्मा, ऊर्जा के द्वारा उपतापित करता हुआ जो अपनी सत्ता का आभास कराता है, उसे स्वर कहते हैं। ज्योतिषशास्त्रान्तर्गत स्वरशास्त्र दो प्रकार का है—1. दैहिक स्वरशास्त्र तथा 2. काल स्वरशास्त्र ।
देहस्वरविज्ञान
मानव शरीर में मस्तिष्क सहित मेरुदण्ड तथा श्वसन-संस्थान में इडा तथा पिंगला नाडियाँ स्थित हैं, दोनों का संयुक्त स्वरूप सुषुम्णा है, जो तीसरी नाडी है। जब श्वास का आवागमन वाम नासिकाछिद्र से होता है, तब इडानाडी का संचार होता है। जब श्वास वायु दक्षिण नासाछिद्र से आती-जाती है, तब उसे पिंगला नाडी का संचार कहते हैं, किन्तु जब श्वास एक साथ दोनों नथुनों में सञ्चरित होता है अथवा क्षण में वामस्वर क्षण में दक्षिण स्वर चलता है, तब उसे सुषुम्णा का चलना कहा जाता है। वामस्वर या वामनाडी का स्वामी चन्द्रमा है, अत: इसे चन्द्रनाडी या चन्द्र स्वर कहते हैं तथा दक्षिण स्वर सूर्य के अधिकार में होने से इसे सूर्य स्वर या सूर्य नाडी कहा जाता है-
चन्द्रस्वेडा वामगा स्याद्दक्षे सूर्यस्य पिङ्गला।
पञ्च-पञ्चघटीरूपे मध्ये शैवी सुषुम्निका।।
देहस्वरविज्ञान पर भगवान् शिवप्रणीत शिवस्वरोदय, नरपतिजयचर्या, स्वरोदयसार, पवनविजयस्वरोदय, मुकुन्दविजय आदि ग्रन्थ हैं। ।
वर्णस्वरविज्ञान
इसे कालस्वर विज्ञान भी कहते हैं। इसमें देवनागरी वर्णमाला के स्वरों एवं व्यञ्जनों से देह की पाँच अवस्थाओं (बालावस्था कुमार, युवा, वृद्ध, मृत) को सम्बन्धित कर शुभाशुभ फल का विचार किया जाता है।
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