मन्त्रेश्वर कृत फलदीपिका जातक ग्रन्थों की शृङ्खला की एक अनुपम कड़ी है। यह ग्रन्थ अपने मूल रूप में प्राचीन भारतीय लिपि ‘ग्रन्थ’ में ही उपलब्ध था और दक्षिण भारत में ही प्रचलित और प्रचारित था । १९वीं शताब्दी के तीसरे दशक में यह ग्रन्थ सर्वप्रथम नागरी लिपि में कलकत्ता से मूलरूप में प्रकाशित हुआ। तमिल, तेलगू आदि दक्षिण भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद उपलब्ध थे । १९३७ ई. में इसकी टीका आङ्लभाषा में प्रकाशित हुई। इसके बाद ही उत्तर भारत इस अनुपम ग्रन्थ से परिचित हो सका । फिर भी हिन्दी भाषा-भाषी पाठक इस ग्रन्थ की विशिष्टता से प्राय: अनभिज्ञ ही रहे। आज इस ग्रन्थ की कतिपय हिन्दी टीकाएँ उपलब्ध हैं। किन्तु इनमें से कोई भी सन्तोषजनक और ग्रन्थ के मर्म में प्रवृत्त हुआ
को उद्घाटित करने में सफल नहीं रही है। इसी उद्देश्य से मैं इस ग्रन्थ की टीका लिखने इस ग्रन्थ के रचयिता— श्री मन्त्रेश्वर – का जन्म दक्षिण भारत के सुदूरवर्ती तिनेवेली जनपद के निम्बूदरीपाद ब्राह्मण कुल में हुआ था । सुकुन्तलाम्बा इनके कुलदेवता थे । इनके विषय में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। इस ग्रन्थ के रचना काल के सम्बन्ध में भी कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वान् इन्हें १३वीं और कुछ १६वीं शताब्दी में मानते हैं । किन्तु १३वीं शताब्दी में इनकी स्थिति भ्रामक लगती है। इस ग्रन्थ के कतिपय श्लोक वैद्यनाथ कृत जातकपारिजात से यथावत् उद्धृत हैं। जातकपारिजात के रचयिता वेंकटाद्रि के पुत्र श्री वैद्यनाथ १४वीं शताब्दी में थे । अतः मन्त्रेश्वर १३वीं शताब्दी में नहीं हो सकते । १६वीं शताब्दी में ही इनका होना अधिक तर्कसंगत लगता है।
इस ग्रन्थ में विषयवस्तु का प्रतिपादन आचार्य ने कुल २८ अध्यायों में किया है;
यथा—(१) संज्ञाध्याय, (२) ग्रहभेदाध्याय, (३) वर्गविभागाध्याय, (४) षड्बलनिरूपणाध्याय, (५) कर्मजीवाध्याय, (६) योगभावाध्याय, (७) महाराजयोगाध्याय, (८) लग्नादिद्वादशभावफला- ध्याय, (९) मेषादिलग्नफलाध्याय, (१०) कलत्रभावाध्याय, (११) स्त्रीजातकाध्याय, (१२) पुत्रचिन्ताध्याय, (१३) आयुर्भावाध्याय, (१४) रोगाध्याय, (१५) जातकफलसारभूतभावा- ध्याय, (१६) लग्नादिद्वादशभाव-समुदायफलाध्याय, (१७) निर्याणभावाध्याय, (१८)
द्विग्रहयोगाध्याय, (१९) दशाफलाध्याय, (२०) दशापहारफलाध्याय, (२१) भुक्त्यन्तलक्ष- णाध्याय, (२२) कालचक्रदशाध्याय, (२३) अष्टकवर्गाध्याय, (२४) होरासारोक्त अष्टवर्ग- फलाध्याय, (२५) उपग्रहाध्याय, (२६) गोचरफलनिर्णयाध्याय, (२७) प्रव्रज्यायोगाध्याय तथा (२८) उपसंहाराध्याय ।
इस ग्रन्थ में जातक विषयों पर एक नये दृष्टिकोण का साक्षात्कार होता है जो अन्य ग्रन्थों से थोड़ा भिन्न है । मन्त्रेश्वर के गोचरफल कथन अत्यन्त तर्कपूर्ण और तथ्यात्मक हैं। भावफलकथन में भी मन्त्रेश्वर के वैशिष्ट्य की झलक देखने को मिलती है।
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