भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।।
अथर्ववेद से उद्भूत स्थापत्य विद्या संस्कृत वाङ्मय में अनेक स्थलों पर प्राप्त होती है। कुछ महापुराणों एवं उपपुराणों में; यथा – मत्स्य, अग्नि, गरुड तथा विष्णु- धर्मोत्तर आदि में; गृह्यसूत्र, आगमग्रन्थों, तन्त्रसमुच्चय आदि तान्त्रिकग्रन्थों, बृहत्संहिता आदि ज्योतिषग्रन्थों में स्थापत्य विद्या से सम्बद्ध पर्याप्त विवेचन प्राप्त होते हैं। आगे चल कर यह विद्या स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित होती है। मत्स्यपुराण (२५२. २-४) में भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित्, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति शिल्पशास्त्र के उपदेष्टा कहे गये हैं। उनमें विश्वकर्मा औदीच्य अथवा नागर वास्तु-परम्परा के तथा मय द्राविड-परम्परा के दीपस्तम्भ आचार्य हैं।
मय की प्रमुख रचना ‘मयमत’ है। इसका काल चोल राजाओं का काल माना गया है। दक्षिण भारतीय वास्तु-परम्परा अथवा द्राविड रीति का यह मानक ग्रन्थ है। द्राविड परम्परा के प्राय: सभी ग्रन्थों का उपजीव्य यह ग्रन्थ अपने भीतर समग्र वास्तु- शास्त्र एवं शिल्पशास्त्र को समेटे है।
द्राविड वास्तु में उपपीठ, अधिष्ठान आदि भवन के मूलभाग एवं शिखरभाग विशिष्ट स्थान रखते हैं। पूरे भवन को वेश्मपुरुष माना जाता है। उपपीठ, अधिष्ठान आदि वेश्मपुरुष के पदभाग अथवा पैर हैं। मध्यभाग वेश्मपुरुष का शरीर तथा शिखर वेश्मपुरुष का शिर होता है, जिस पर वेश्मपुरुष के शिर का अलंकरण होता है। इस प्रकार वास्तुमण्डल में जिस वास्तुपुरुष को स्थापित किया जाता है, वह मानों भवनके रूप में उठ खड़ा होता है। भवन वास्तुपुरुष का विग्रह होता है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर के किसी भाग में विकार आ जाय तो वह कष्टकर होता है, उसी प्रकार भवनअथवा वेश्मपुरुष की रचना करते समय यदि किसी भाग में दोष होता है तो वह गृह अपने भीतर निवास करने वालों के लिये कष्टकारी होता है। अत: वास्तुविद् ने इस पर अत्यधिक ध्यान दिया है।
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