हम किसी भी तथ्य का निरीक्षण करके उसे व्यवहार में लाते हैं और अनुभव के उपरान्त सहजता से यह जान लेते हैं कि क्या सच है क्या झूठ। इसी जिज्ञासा के फलस्वरूप ही विज्ञान सर्वोच्च शिखर पर है। जो ज्ञान है वही विज्ञान है और अन्य ज्ञान अज्ञान है। शास्त्र जन्य ज्ञान को ज्ञान और अनुभवजन्य ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र के दो खण्ड हैं- गणित व फलित।
गणित यदि वचन है तो फलित अर्थ है। फलित रहित गणित भी व्यर्थ है। दोनों में घनिष्ठता होते हुए भी फलित गणित के अधीन है। वस्तुतः गणित स्वतंत्र और फलित परतंत्र है। गणितीय गणना से ज्ञात होता है कि आकाश में सूर्यादि ग्रहों की स्थिति क्या है? आप स्वयं सोचे यदि ये गणनाएं गलत होतीं तो सूर्य और चन्द्र ग्रहण का पूर्वाभास दिनांक और समय के रूप में किया जाता है वह भी गलत होता।
लेकिन ऐसा नहीं होता है, अतः स्पष्ट है कि गणित खण्ड सत्य है। फलित खण्ड का परमलक्ष्य ग्रहों के पारस्परिक संबंधो के आधार पर व्यक्ति की जीवन-यात्रा के सुख-दुःख नामक मील पत्थरों का पूर्वानुमान लगाकर उसे सुमार्ग बतलाना है जिससे उसकी यात्रा आसानी से पूरी हो सके। ज्योतिष शास्त्र केवल सम्भावना की ओर संकेत करता है,
उस सम्भावना पर विचार करके यह अनुमान लगाना पड़ता है कि फल क्या होगा? जैसे धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान हो जाता है, बिल्कुल वैसे की कुंडली की ग्रह स्थिति और उनके पारस्परिक संबंधो के आधार पर सम्भावना रूप में कुंडली का फल ज्ञात हो जाता है। फल में सत्यता तभी सम्भव है जब हर कोण से एकाग्रचित होकर बहुत मनोयोग से कुंडली का विश्लेषण किया जाए।
‘लघुपाराशरी’ नामक ग्रन्थ फलित खण्ड का पक्षधर है और इस ग्रन्थ के 42 श्लोकों में वर्णित महर्षि पाराशर प्रणीत फलित-सिद्धान्त कुंडली का फल कहने में अचूक और अकाट्य हैं। कोई भी ज्योतिष ऐसा नहीं होगा जो कि कुंडली का फलित करते समय ‘लघुपाराशरी’ के सिद्धान्तों का प्रयोग न करता हो। ‘लघुपाराशरी’ ज्योतिष-प्रेमियों के बीच में कई दशकों से लोकप्रिय है।
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