भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
पवित्र ‘कूर्म पुराण’ ब्रह्म वर्ग के अंतर्गत आता है। इस पुराण में चारों वेदों का श्रेष्ठ सार निहित है। समुद्र-मंथन के समय मंदराचलगिरि को समुद्र में स्थिर रखने के लिए देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् विष्णु ने कूर्मावतार धारणं किया था। तत्पश्चात् उन्होंने अपने कूर्मावतार में राजा इन्द्रद्युम्न को ज्ञान, भक्ति और मोक्ष का गूढ़ रहस्य प्रदान किया था। उनके ज्ञानयुक्त उपदेश को इस पुराण में संकलित किया है। इसलिए इस पुराण को ‘कूर्म पुराण’ कहा गया है। इस पुराण का ज्ञान महर्षि व्यास ने अपने शिष्य रोमहर्षण (लोमहर्षण) सूतजी को प्रदान किया था। तत्पश्चात् नैमिषारण्य में महषि रोमहर्षण सूतजी ने शौनकादि ऋषि-मुनियों को यह पुराण सुनाया था।
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