चौरासी लक्ष योनियों में मनुष्ययोनि सबसे विशिष्ट तथा उत्तम है। उसकी यह विशिष्टता किस कारण से है ? क्यों वह अन्य योनियों की अपेक्षा उत्तम है ? इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं कि ‘मनुष्यों एवं पशुओं में आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन की प्रवृत्तियाँ समान रूप से होती हैं, किन्तु मनुष्य में बुद्धि का वैशिष्ट्य रहता है। बुद्धि से रहित मनुष्य भी पशुसदृश ही होता है। अब प्रश्न उठता है कि बुद्धि क्या है ?”
बुद्धि की परिभाषा-‘बुद्धि (आत्मा का) वह विशिष्ट गुण होता है जो सभी व्यवहारों का हेतु है, वही ज्ञान है।’ ‘सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम् ।’ – तर्क संग्रह बुद्धि दो प्रकार की होती है-१. स्मृति स्वरूप तथा २. अनुभव स्वरूप । इसमें स्मृति दो प्रकार की होती है— (क) यथार्थ तथा (ख) अयथार्थ ।
इसी प्रकार अनुभव भी यथार्थ तथा अयथार्थ इन दो प्रकारों का होता है। जिस अनुभव से जो वस्तु जैसे स्वरूप की है वह उसी रूप में जानी जाती है, वह यथार्थ अनुभव कहलाता है। किन्तु वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान जिसमें न हो, वह अयथार्थ अनुभव होता है। इसी प्रकार जो स्मृति ‘प्रमा’ से उत्पन्न होती है वह यथार्थ तथा जो ‘अप्रमा’ से उत्पन्न होने वाली स्मृति है वह अयथार्थ हुआ करती है। बुद्धि या ज्ञान आत्मा का लक्षण है। इसीलिये महर्षि गौतम कहते हैं-
बुद्धि के पर्यायवाची – ज्ञान, उपलब्धि, प्रत्यय तथा बुद्धि-ये चारो शब्द पर्यायवाची हैं। किन्तु इनके अर्थ में विशेषता भी है। ‘ज्ञा’ धातु में ‘ल्युट्’ प्रत्यय जुड़ने से ज्ञान शब्द सिद्ध होता है। ज्ञान का अर्थ जानना, समझना, परिचित होना तथा प्रवीणता प्राप्त होना होता है। मनुस्मृति के अनुसार बुद्धि ज्ञान से परिष्कृत होती है-‘बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ।’ ‘लभ्’ धातु के पूर्व ‘उप’ उपसर्ग, जुड़कर तथा पश्चात् ‘क्तिन्’ प्रत्य लगने से ‘उपलब्धि’ शब्द का निर्माण हुआ है।
यह प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। ‘इ’ धातु के पूर्व ‘प्रति’ उपसर्ग तथा पश्चात् अच् प्रत्यय जुड़ने से प्रत्यय शब्द बना है। इसका अर्थ निश्चित विश्वास या दृढ़-धारणा होता है। ‘बुध्’ धातु का अर्थ जानना होता है। ‘बुध्’ धातु में ‘क्तिन्’ प्रत्यय जुड़ने से बुद्धि शब्द बनता है। सांख्य दर्शन ने बुद्धि को अध्यव- साय कहा है-‘अध्यवसायो बुद्धि:०’ (२।१६) लोक व्यवहार में भी व्यक्तियों में बुद्धि की भिन्नता से श्रेष्ठता कनिष्ठता दृष्टि गोचर होती है-‘समानकर्मयोगे बुद्धे प्राधान्यं लोकवल्लोकवत् ।’ (२।४७) ‘इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो









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