यह सम्पूर्ण चराचर सृष्टि नवग्रहों से प्रभावित होकर प्रतिक्षण अपना रूप बदलती रहती है। ग्रह-नक्षत्र हमारे मानव जीवन को ही नहीं, अपितु प्रकृति को भी अत्यधिक प्रभावित करते हैं। इनका प्रभाव अदृश्य देवादि योनियों पर भी पड़ता है।
ज्योतिष शास्त्र का महत्वपूर्ण भाग फल-कथन है। वैसे भी ज्योतिष शास्त्र को वेदों का नेत्र और पंचम वेद कहा गया है। भविष्य को जानने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति की होती है। संकट में यह इच्छा और भी प्रबल हो जाती है। भविष्य को निर्धारित करने की सर्वाधिक प्रचलित और विश्वसनीय विधि जन्म-पत्रिका का विश्लेषण है।
जब सुयोग्य ज्योतिर्विद् को हम जन्म-पत्रिका दिखाते हैं, तो वह हमारे जीवन में होने वाले शुभ-अशुभ फल को वर्णित करते हैं। इधर लगभग बीस-पचीस वर्षों से कालसर्पयोग का प्रचार-प्रसार काफी बढ़ गया है। कालसर्पयोग जिन जातकों की जन्म-पत्रिका में उपस्थित होता है, उन जातकों के जीवन में उतार-चढ़ाव आना स्वाभाविक हो जाता है।
कालसर्पयोग के विषय में हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने ग्रन्थों में इसका स्पष्ट वर्णन नहीं किया है। जबकि आज के ज्योतिष शास्त्र के विद्वान् कालसर्पयोग के विषय में अत्यधिक विश्लेषण करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में राहु-केतु के द्वारा शुभ और पापग्रहों के द्वारा प्रतिबन्धित हो जाने पर ग्रह अपने आपको बन्धनयुक्त समझते हैं। इसी को राहु-बन्धनयोग कहते हैं। बन्धन की परिभाषा अत्यधिक विस्तृत है।
बन्धन प्यार भाव का हो या शत्रुभाव का, यह तो ग्रहयोग पर ही निर्भर होकर शुभ अशुभ योगों की उत्पत्ति करता है, जिसका वर्णन शास्त्रों में वर्णित है। जब भी सातों ग्रह छोटे-छोटे समूह में न होकर एक साथ ग्रहों का परिवार राहु और केतु के मध्य में स्थित होते हैं तो पूर्णबन्धन महसूस करते हैं। इसी को आज के विद्वानों ने कालसर्पयोग का भयावह रूप देकर विशेष प्रचलित कर दिया है।
कालसर्पयोग अर्थात् राहु-केतु बन्धन योग एक अशुभ योग के रूप में माना जाता है। राहु और केतु के मध्य में आने वाले सभी भावों में एक-एक ग्रह जब स्थित होते हैं तो कालसर्पयोग बनता है।










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