हमारे यहाँ मुहूर्त ग्रन्थों की वृहद् श्रृङ्खला मिलती है। आचार्य लल्ल कृत ‘रत्नकोश’ (सम्प्रति लुप्तज्ञात संहिता ग्रन्थ) से लेकर वर्तमान तक कई मुहूर्त ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इनमें श्रीपति कृत ‘ज्योतिषरत्नमाला’ कदाचित प्रथम मुहूर्तशास्त्र है और उन्हीं का ‘दैवज्ञवल्लभ’ विस्तृत मुहूर्त ग्रन्थ है। तमाम भारतीय मुहूर्त ग्रन्थ इन ग्रन्थों के ऋणि हैं। बहुप्रसिद्ध ‘मुहूर्तचिन्तामणि’ को तो विद्वानों ने रत्नमाला का ही संस्कृत-स्वरूप कहा है, किन्तु मुहूर्त नामाभिधान वाले मुहूर्ततत्त्व, मुहूर्तमार्तण्ड, मुहूर्तमाला, मुहूर्तकल्पद्रुम, मुहूर्तगणपति, मुहूर्तदीपक प्रभृति ग्रन्थ भी रत्नमाला से ही प्रभावित हैं और अक्षरशः अथवा अत्यल्प फेरबदल के साथ श्रीपति के ही मत का अनुसरण करते हैं।
यह विचित्र ही है कि रत्नमाला के सर्वाङ्ग सम्पन्न होने के बावजूद अन्य ग्रन्थों की क्या आवश्यकता हुई? इसका सामान्य उत्तर तो यही है कि समय-समय पर इस विषय पर कार्य करने की आवश्यकता हुई होगी किन्तु मेरा यह भी मानना है कि रत्नमाला के विस्तृत ग्रन्थ होने के कारण और दैवज्ञ गणकों द्वारा मुहूर्त जैसे प्रसङ्गों को हर दिन उपयोगी देखते हुए श्रोक मतों को कण्ठस्थ कर लेने की आवश्यकता के कारण भी इस विषय पर लघु से लघुत्तर ग्रन्थों की रचना होती चली गई। 1572 ई. तक जबकि मुहूर्तमार्तण्ड और मुहूर्तमाला की रचना हो गई थी- उक्त मत की पुष्टि देखी जा सकती है।
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