‘ज्योतिष शास्त्रमनेकभेदविततं स्कन्धत्रयाधिष्ठितं’
इस वचन के अनुसार संहिता-गणित-होरा ये ज्योतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध हैं। इन तीनों स्कन्धों के ज्ञाताओं एवं ग्रन्थकर्ताओं में वराहमिहिर का नाम प्रधानरूप से माना जाता है। यहीं एक ऐसे ज्योतिषी हुए हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थ (बृ०सं०) में तीनों स्कन्धों का विशद परिचय लिखा है। इनके समय तक ज्योतिष का सुव्यवस्थित रूप नहीं था अतः आचार्य ने पूर्वकालिक दैवज्ञों के ग्रन्थों का अध्ययन मनन करके ज्योतिष को सुव्यवस्थित रूप दिया । ज्योतिष के होरा (फलित) स्कन्ध पर इन्होंने विशेष कार्य किया, इसी कारण आज भी इनके ग्रन्थ फलितशास्त्र में मेरुदण्डस्वरूप माने जाते हैं। आज भारतीय ज्योतिष का जो विशाल वृक्ष हमें दिखाई देता है वह (उसके मूल में) आचार्य के बौद्धिकसिञ्चन के कारण है।
कालनिर्धारण – आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थों में कहीं भी अपने जन्मसमय का उल्लेख नहीं किया है अतः इतस्ततः प्राप्त संकेतों के आधार पर ही विद्वानों ने इनके कालनिर्धारण का प्रयास किया है। पञ्चसिद्धान्तिका (रोमक सिद्धान्त) में आचार्य ने लिखा है कि –
सप्ताश्विवेद संख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्द्धस्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्य दिवसाद्ये ।। (प०सि० १/८)
अर्थात् अहर्गण बनाने हेतु शकाब्द में ४२७ घटाना चाहिए। इससे यह सिद्ध होता है कि पञ्चसिद्धान्तिका ग्रन्थ का रचनाकाल ४२७ शकाब्द है। यदि ग्रन्थ रचना काल में आचार्य की आयु २० या २१ वर्ष मान ली जाय तो ४०७ या ४०६ शकाब्द में आचार्य का जन्मसमय सिद्ध होता है। बृहत्संहिता में इन्होंने लिखा है कि- आश्ले-षार्धाद्दक्षिणमुत्तरमयने…..। (बृ०सं० ३/१)
Reviews
There are no reviews yet.