कर्म का भोग भोग का कर्म, यही जड़ चेतन का आनन्द । श्री जयशंकर प्रसादजी की कामायनी का यह वाक्य मुझे कभी नहीं भूलता, क्योंकि इहलोक और परलोक का सारा रहस्य, सारा नियम इसी वाक्य में छिपा हुआ है। जो करोगे वही भोगोगे, जो भोगोगे वह करोगे (भरोगे)। खाना है तो कमाना है, कमाओगे तभी खाओगे। जो बोया है वही काटोगे जो काट रहे हो, उसी को बोना है। यही तो है- कर्म का भोग भोग का कर्म । तो… कर्म करो, साधना करो, उपाय करो और अपने जीवन को सरस, सुगामी एवं वैभवशाली बनाओ। केवल पढ़ने से, केवल सोचने से या केवल बात करने से तुम्हारा पेट नहीं भरेगा, घर-परिवार नहीं चलेगा, प्रगतिशीलता एवं वैभव नहीं आयेगा। मात्र चाहने से, इच्छा करने से, कल्पना करने से अथवा नूतन स्वप्न देखने से कुछ नहीं होगा। बस, यांचक बने रहोगे ।
सुख और दुःख संसार के ही नहीं, परलोक के भी दो भोग्य हैं। इन्हें भोगना ही होगा, सहना ही होगा। भोगना ही पड़ता है, भोगना ही पड़ेगा। अतः इनमें समन्वय करना सीखो । संसार में दो ही आकांक्षायें होती हैं- सुखों की आवृत्ति और दुःखों की निवृत्ति । सुख आये-दुःख जाये…। और इन्हीं का संतुलन एवं समन्वय बनाये रखने का सारा प्रयास मनुष्य करता है-कर्म करता है, किन्तु जब सांसारिक कर्म के समस्त मार्ग या जिस मार्ग में चलते रहे हैं अथवा चलना चाहते हैं, वे सारे के सारे बन्द हो जाते हैं या कुछ दूर चलकर बंद हो जाते हैं तो व्यक्ति क्या करे ? भाग्य को कोसे, अन्य लोगों के सामने हाथ पसारे अथवा याचना करे? इधर-उधर भटक कर लोगों से भाग्य बदलने के उपाय पूछे अथवा क्या करे ? नहीं ! किसी के पास न जाये। वरन् अपना धर्म करे-कर्म करे और माँ भगवती की शरण में जाये।
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