होरास्कन्ध में जन्माङ्ग और दशा- ये दो महत्त्वपूर्ण अङ्ग हैं। इनके सहयोग – ही से ही जातक के शुभाशुभ परिणाम एवं उनके काल का ज्ञान होता है। एक प्रसिद्धउक्ति है—‘जन्माङ्गं फलिते मूलम्’ अर्थात् फलित शास्त्र में जन्माङ्ग जन्माङ्ग का अर्थ है— जन्मकालिक लग्न के अनुसार भावों की स्थिति तथा उनमें प्रमुख है। तात्कालिक ग्रहों की स्थापना । ये जिस चक्र में होते हैं, उसे जन्माङ्ग-चक्र या जन्म-कुण्डली कहते हैं । वस्तुत: जन्माङ्ग-चक्र जन्मकालिक आकाश का मानचित्र होता है, जिसका आरम्भ-बिन्दु पूर्व दिशा का स्थानीय क्षितिज होता है। इतना ही नहीं; जन्माङ्ग-चक्र के २२ भाव सम्पूर्ण राशिचक्र या नक्षत्र-चक्र के भी परिचायक हैं। प्रत्येक भाव का मान ३०° तथा १२ भावों का सम्पूर्ण मान १२ ×३०=३६०° होता है। राशिचक्र या नक्षत्र-चक्र का कोणीय मान भी ३६०° होता है। अतः गणितीय दृष्टि से भी जन्माङ्ग-चक्र में राशिचक्र या नक्षत्र- चक्र की सत्ता सिद्ध होती है।
जन्मलग्न की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि ‘लगतीति लग्नम् क्रान्ति-वृत्तस्य यो हि प्रदेश: प्राच्यां क्षितिजवृत्तं स्पृशति तदेव लग्नम्’ अर्थात् क्रान्तिवृत्त (राशिचक्र) का जो भाग जिस समय पूर्व क्षितिज को स्पर्श करता है, राशिचक्र का वही भाग तात्कालिक लग्न होता है। अस्त क्षितिज अर्थात् पश्चिम क्षितिज को जो भाग स्पर्श करता है, वह सप्तम लग्न, ऊर्ध्व खमध्य को स्पर्श करने वाला भाग दशम लग्न तथा अध: खमध्य को स्पर्श करने वाला राशिचक्र का वह भाग चतुर्थ लग्न कहलाता है। इस प्रकार जन्माङ्ग-चक्र का एक-एक भाव आकाश के विभिन्न भागों का परिचायक होता है। ‘यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’ इस सिद्धान्त के अनुसार जो राराचक्र अनन्त आकाश में व्याप्त है, वही राशिचक्र मानव-शरीर में भी व्याप्त है। आचार्य वराहमिहिर ने लिखा है-‘शीर्ष-मुख- बाहुहृदयोपराणि, कटि-वस्ति-गुह्य-संज्ञानि ऊरू जानु-जङ्घे चरणाविति राशयो- ऽजाद्या: ।’ अर्थात् मेषादि राशियाँ क्रमश: शिर-मुख- बाहु-हृदय-उदर-कटि- वस्ति-गुह्य-ऊरू- घुटना-जंघा और चरणों में स्थित होती है। अतः जन्माङ्ग-चक्र आकाश की भाँति सम्पूर्ण शरीर को भी व्याप्त किये हुए है। इसलिए यह सूक्ति ‘जन्माङ्गं फलिते मूलम्’ सर्वथा सत्य है।
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