दैवीय शक्तियों एवं प्रकृति को अनुकूल करने के मात्र तीन साधन हैं- तंत्र, मंत्र और यंत्र। इनमें से तंत्र प्रयोग करना सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं है क्योंकि इसमें जो साधना जिन विशेष स्थितियों में की जाती है, वह कर पाना आसान नहीं होता है, इसलिये तंत्र प्रयोग के बारे में आम व्यक्ति विचार भी नहीं कर पाता। मंत्र के प्रयोग सामान्य तथा विद्वजन के लिये प्रारम्भ से ही आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। सीधे, सरल तथा लघु मंत्रों का प्रयोग सामान्य रूप से होता है। इसके अलावा यंत्र प्रयोग भी बहुत आसान एवं प्रभावशाली माना गया है। यंत्रों का प्रयोग आसान है और लाभ की प्राप्ति भी होती है। यंत्र प्रयोग के साथ-साथ मंत्र प्रयोग करने से प्राप्त होने वाला लाभ शीघ्र मिलता है, इसलिये घरों में की जाने वाली पूजा में ये यंत्र एवं मंत्र प्रयोग किसी न किसी रूप में समाविष्ट रहते हैं।
इन दोनों विधाओं यंत्र एवं मंत्र को एक-दूसरे से अलग करना असंभव सा है। यंत्र कुछ आकृतियों अथवा अंकों या वर्णों का एक ऐसा तालमेल है, जो एक विशिष्ट तरीके से बनाने, रखने एवं पूजन से अभीष्ट फल प्रदान करता है। दरअसल, रेखाओं के विज्ञान को हम सभी समझते हैं, ’01’ और ’10’ का भेद केवल ‘0’ के स्थानीय मान से निरूपित होता है, रेखाओं को पृथक-पृथक मोड़ने से भिन्न-भिन्न आकृतियों के बनने को कौन नकार सकता है, आकृति विज्ञान में रेखाओं का महत्त्व सर्वविदित है, यह सब बातें स्पष्ट करती हैं कि ‘यंत्रों’ में कुछ न कुछ वैज्ञानिकता छिपी हुई है। जब किसी यंत्र को किसी मंत्र से, आवश्यक होने पर आवेशित कर दिया जाता है तो वह और भी शक्तिशाली हो जाता है, क्योंकि ‘नादब्रह्म’ की शक्ति को हम सभी भलीभांति जानते हैं।
दरअसल, ध्वनियों के साथ जुड़कर रेखाओं और आकृतियों में जो बल अथवा ऊर्जा जन्म लेती है, उसे एक ध्याता ही जान सकता है। सभी यंत्रों की अपनी अस्मिता होती है, निजता होती है, एक सत्ता होती है। यह विषय सूक्ष्मतम अनुभूति का है-इसे समझने और जानने के लिये एक विशिष्ट भाव, विश्वास और श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धा एवं विश्वास से ओतप्रोत भक्ति एवं तर्क के मार्ग काफी अलग-अलग हैं। तर्क की कसौटी पर भक्ति, विश्वास और श्रद्धा को कसा नहीं जा सकता और यदि कोई ऐसा करता है, तो निश्चय ही उसमें भक्ति का हास होता है, वह मुरझा जाती है।























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