Brihat Samhita
वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिश्शास्त्रमकल्मषम्।
यह सूक्ति ज्योतिष शास्त्र के वेदाङ्गत्व एवं उसके निर्दुष्ट स्वरूप को पारिभाषित करती है। ज्योतिष वेदपुरुष का निर्मल चक्षु है। यहाँ केवल चक्षु ही नहीं; अपितु ‘निर्मल चक्षु’ कहा गया है। साधारण चक्षु की दृष्टि भी सामान्य होती है तथा मलिन चक्षु की दृष्टि अस्पष्ट एवं धूमिल होती है। निर्मल (दोषरहित) चक्षु ही किसी भी वस्तु को यथार्थ रूप में देख सकता है तथा उसका यथार्थ प्रतिपादन कर सकता है। इसीलिये इसे वेदपुरुष का निर्मल चक्षु कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र भी देखने का ही कार्य करता है। ‘गणित’ और ‘वेध’ नामक इसकी दो आँखें हैं।
गणितागत परिणाम भी दृश्य होते हैं एवं वेधोपलब्ध परिणाम भी दृश्य होते हैं। जब दोनों दृष्टियों से प्राप्त परिणामों में साम्यता हो जाती है तो ज्योतिष शास्त्र का आकल्मषत्व तथा नेत्रों का निर्मलत्व-दोनों ही प्रमाणित हो जाता है। सर्वविदित है कि ज्योतिष वेध द्वारा गणितागत परिणामों का परीक्षण कर उसे पुष्ट करता है; इसीलिये कमलाकर भट्ट ने निःसङ्कोच यह उद्घोष कर दिया कि ‘इस शास्त्र में दृष्ट विरुद्ध मुनि द्वारा कहा गया सिद्धान्त मान्य नहीं है।'” ज्योतिष अपनी प्रामाणिकता के लिये स्वयं को ही उत्तरदायी मानता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष में आचार्य लगध ने इसे ‘कालविधान’ शास्त्र कहा है। काल की अवधारणा एवं उनके भेदों का प्रतिपादन ज्योतिष शास्त्र ने ही किया है। काल के प्रमुख नियामक सूर्य और चन्द्रमा हैं, जो ज्योतिष शास्त्र के साक्षी माने जाते हैं।










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