प्राक्कर्मसूचकखगेषु कथं नु भक्तिः
प्राक्कर्मयोगशमनाय हि भोगमूचुः ।
केचित्तथा दुरितहृज्जगदीश भक्तिः
किन्तु ग्रहाधिगत एकल एव विष्णुः ॥
(सूर्यारूणसंवादे)
वेद के षडङ्गों में ज्यौतिष का महत्तम स्थान है । वेदों में ग्रह नक्षत्रों के लिए देवत्वरूप में स्तुतिरूप ऋचायें उक्त है तथा ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों में ग्रह नक्षत्रों के रूप-रंग गुण-प्रभाव आदि का विचार किया गया है
ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम स्कन्धत्रय में जाना गया, जिसे १. सिद्धान्त २. संहिता ३. होरा इन तीन भागों में विभाजित किया गया। सम्प्रति उक्त विभाजन ने पञ्चात्मक रूप धारण कर लिया है जिसमें १. सिद्धान्त २. संहिता ३. होरा ४. प्रश्न ५. निमित्त (शकुन) । आजकल तो ज्योतिष का क्षेत्र और भी विस्तृत होकर जीव विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान आदि अनेकानेक विषयों से सम्बन्धित हो चुका है । ज्योतिष शास्त्र के विकास क्रम पर विचार करने से इसका कालविभाजन इस प्रकार किया जाता है ।
१. उदयकाल १०००० से ५०० वर्ष ई.पू. तक,
२. आदिकाल ५०० ई.पू. से ५०० ई.सन्. तक,
३. पूर्वमध्यकाल ५०० ई.सन् से १००० ई.सन्. तक,
४. उत्तरमध्यकाल १००० ई.सन्. से १६०० ई.सन्. तक,
५. आधुनिककाल १६०० ई.सन्. से आज तक,
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