ज्योतिष शास्त्र का विषय सूक्ष्म और गहन है, इसका प्रयोजन भविष्य की घटनाओं का परिचय कराना ही नहीं, अपितु परिचय देकर लाभ कराना भी है। जीवन में हम अनेक लोगों के सम्पर्क में आते हैं। माता-पिता के पश्चात् व्यक्ति का निकटतम सम्बन्ध पत्नी के साथ रहता है, इस सम्बन्ध का प्रभाव केवल मनुष्य के जीवन तक ही नहीं, अपितु उसके वंश की आगामी कई पीढ़ियों तक चलता है, क्योंकि सन्तान परम्परा में पूर्वजों के गुण-दोष किसी न किसी रूप में विद्यमान रहते हैं।
दाम्पत्य जीवन सुखमय रहेगा या दुःखमय, और इसे कैसे सुखमय बनाया जा सकता है, यह प्रश्न एक गम्भीर चुनौती के रूप में भारतीय जन-मानस को आन्दोलित करता रहा है। ज्योतिष शास्त्र के मनीषी आचार्यों ने प्राचीन काल में ही इस प्रश्न का भली भाँति विचार किया था और उन्होंने सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए उपयुक्त वर-वधू का चुनाव, उनके गुण दोषों का विचार, उनकी प्रकृति एवं अभिरुचियों में समानता की पहचान तथा उनके आपसी पूरकत्त्व भाव का पृथक् पृथक् रूप से गम्भीरतापूर्वक विचार कर उन सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपदान किया जिनके द्वारा न केवल दाम्पत्य सम्बन्धों का ही, अपितु दाम्पत्य जीवन के समस्त पहलुओं को सरलतापूर्वक जानकर समाधान किया जा सके।
आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उक्त सिद्धान्त का विवेचन ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध जातक एवं प्रश्न ग्रन्थों में किया गया है, किन्तु ये सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे होने से जन-साधारण की पहुँच से काफी दूर हैं,
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