दस महाविद्याओं में भगवती छिन्नमस्ता का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इनका स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। कुछ शास्त्रकारों के मत से ये अपने दायें हाथ में कैंची और गले में मुण्डमाला धारण की हुई हैं। ये सदैव निर्वस्त्रा ही रहती हैं। इनकी आकृति अत्यन्त भयानक व डरावनी है। ये अपनी भयानक जीभ से ओंठों को चाट रही हैं तथा अपने कण्ठ से निकली हुई रक्तधारा को स्वयं ही पी रही हैं। अपने गले में हड्डियों की माला तथा सर्पों का यज्ञोपवीत धारण कर विपरीत रति में आसक्त रतिकाम के ऊपर स्थिर होकर यह बैठी रहती हैं। इनका स्वरूप षोडश वर्षीया बाला के तुल्य व इनके दोनों स्तन अत्यधिक स्थूल और उन्नत हैं। इनका स्वरूप तेज के कारण जाज्वल्यमान है। यह अपनी देहयष्टि पर विविध आभूषण और अस्थिमाला से सदैव सुसज्जित रहती हैं।
इनके प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार से है-एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजया के साथ मन्दाकिनी नदी में स्नान करने के हेतु गयीं। स्नानोपरान्त भूख से व्याकुल होकर वे कृष्णवर्ण की हो गईं। उस समय उनकी सहचरियों ने भी उनसे भूख को शान्त करने के लिए कुछ भोजन माँगा। किन्तु देवी ने उनसे कुछ समय प्रतिक्षा करने के लिए कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के उपरान्त सहचरियों ने जब पुनः उनसे भोजन के लिए आग्रह किया, तब देवी ने उनसे पुनः कुछ देर और प्रतीक्षा करने के लिए कहा। इसपर उनकी दोनों सहचरियों ने उनसे विनम्र स्वर में कहा कि माँ तो अपने बच्चों को भूख लगने पर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। फिर आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं? अपनी सहचरियों के मधुर वचन को सुनकर तत्काल देवी ने अपने खड्ग से अपना सिर काट दिया। उनका कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और उनके कबन्ध से रक्त की तीन धारायें प्रवाहित हुईं। भगवती ने दो धाराओं को अपनी दोनों सहचरियों की ओर प्रवाहित कर दिया। जिसका पान कर ये दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा का स्वयं देवी पान करने लगीं। उसी समय से यह देवी छिन्नमस्ता के नाम से सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुईं।
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