मैं शम्भुसिंह नृप माधवसिंहका पुत्र तथा शिवदानसिंहका पौत्र मालवदेशीय सुठालियाका अधिप्ति, ॥ १ ॥ गणेश सरस्वती श्रीगुरु और इष्टदेवताको नमस्कार करके ज्योतिषतत्त्वको बतलाने- वाले इस ज्योतिः कल्पद्रुम नामक ग्रन्थको प्रकाशित करताहूं ॥ २॥ यह ज्योतिषशास्त्र समुद्रके तुल्य ऐसा अगाध और अपार है कि जिसमें बड़ा अभिमानी मंदराचल पर्वतभी डूबता है परन्तु में अल्प- बृद्धि श्रीगुरुके चरणोंके आश्रयसे गोपादके तुल्य विनाही परिश्रम इसके पारंगत होगया ॥ ३ ॥ प्रथमतो ज्योतिषशास्त्र स्वयंही सम- झनेमें कठिनहै फिर संस्कृतभाषामें होनेसे औरभी कठिन होगया है इसलिये सबलोगोंके समझमें सहजही आजाने के वास्ते नागरी भाषा में इस ग्रन्थको प्रकाशित करता हूं ।॥४॥ यहां श्लोक में जो श्रीशब्द मेरे नामके पूर्व आयाहै यह आत्मस्तुतिका प्रकाशक नहीं है प्रत्युत प्राचीन शास्त्रानुसार हरएक ग्रन्थके आरम्भमें मंगलवाची श्रीआदिशब्द आनाचाहिये इसलिये यहां यह श्रीशब्द मंगलार्थ लिखागया है।
Reviews
There are no reviews yet.