प्राच्य किम्बा पाश्चात्य, भूमण्डलके सभी विद्वानोंने हिन्दुओंके इस दावेको एक स्वरसे स्वीकार कर लिया है कि उनके आदि धर्मन्प्रन्थ वेद संसारके प्राचीनतम ग्रन्थ हैं और चूँकि उनका ज्योतिःशाब उनके वेद- विहित धार्मिक कृत्योंके साथ एक अभेद्य सम्बन्ध रखता है, उनका ज्यौतिपिक ज्ञान भी, किसी अन्य जातिके ज्योतिषिक ज्ञान की तुलनामें, उनके वेदोंकी ही तरह प्राचीनतम है। इससे यह फल निकला कि इस शाखाका ज्ञान पहले पहुछ हिन्दुओंको ही हुआ और अन्य जातियोंने इसे हिन्दुओंचेही सीखा; वे इस ज्ञानके लिये किसी विदेशीय जातिके ऋणी न थे और वे दूसरोंके ऋणी हो भी कैसे सकते थे ? क्योंकि जिस सुदूर अतीत कालमें जब संसारकी अन्य जातियां अज्ञान तिमिरके एक निविड़ पटलसे आच्छन्न होरही थीं हिन्दु- ओंके बेदिक ऋषियोंको उसी समय अपने धार्मिक कृत्योंके यथाविधि सम्पा- दनार्थ शुभ मुहूत्तौकी खोज करनेकी आवश्यकता पड़ी जो उनके विश्वासा- नुसार अभीष्ट-फल-प्रद और सूर्य चन्द्रादि गगनचारी पिण्डोंकी गत्यादि पर अवलम्बित थे।
इसके अतिरिक्त जिन विदेशियोंको वैदिक ऋषिगण म्लेच्छ, दस्यु, दानव, असुर आदि घृणाव्यञ्जक नामोंसे पुकारा करते थे तथा जिन्हें वे अपने धर्मके कट्टर शत्रु मानते थे उन्हींके वे अपने धर्म-कृत्योंके सम्पाद- नार्थ चेले बनें यह कब माननेकी बात है? इस विद्याको विदेशियोंने हिन्दु- ऑसेही सीखा, इसका प्रबल प्रमाण हमें सूर्य-सिद्धान्तसे मिलता है। मय नामक असुरने, जिसका असुर शब्दसे असीरियादेशवासी (Assyrian) होना सिद्ध होता है, अपनी घोर तपस्यासे सूर्य देवको प्रसन्न किया। तब उन्होंने अपने अंशसे एक पुरुषको उत्पन्न किया और उस अंश पुरुषको मयको ज्योतिर्विद्या सिखा देनेका आदेश देकर स्वयं अन्तर्हित होगये। इस आख्या- यिका परसे पौराणिक पर्दा हटा लेनेसे हमें साफ मालूम होजाता है कि, ये सूर्य कोई वैदिक ऋषि थे और उनका अंश-पुरुष कोई उनका शिष्य था जिसने मयको अपने गुरुकी आज्ञासे ज्योतिर्विद्या पढ़ाई ।
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