प्रायः यह तो सबको ही विदित है कि वेद के छः अंगों में से “ज्योतिषं नयनं स्मृतम्” इस प्रमाण से ज्योतिषशास्त्र वेद का छठवां अंगनेत्र माना गया। नेत्र का धर्म संसार की सम्पूर्ण वस्तुएं देखने का है। ज्योतिष के तीन स्कन्ध है सिद्धान्त, संहिता और जातक। सिद्धान्त वह है जो सूक्ष्मगणित द्वारा आकाश में ग्रह, नक्षत्र. तारा एवं राशि इनके उदय अस्त, योग, ग्रह, युद्ध तथा चन्द्र सूर्य ग्रहणादि का सुस्पष्ट ज्ञान होकर उनसे विश्व भर के अनेक शुभाशुभ फल जाने जाते हैं।
संहिता वह है जो ग्रह बिम्बों के संयोगवश, दिन, रात्रि, समय, अयन, ऋतु एवं देश विदेशों में नाना प्रकार के शुभाशुभ उत्पातादि योग जाने जाते हैं। जातक वह है जो प्रत्येक जीवात्मा अपने अपने कर्मानुसार ८४ लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ पुनः वह यहां जब जन्म लेता है तो ठीक उसी ही समय के इष्ट, लग्न, ग्रह, नक्षत्रादिवश उसके सुख दुःख, लाभ हानि, भाग्य, आयु आदि जीवनभर के सम्पूर्ण शुभाशुभ फल पूर्णतया जाने जाते हैं।
हमारे प्रातःस्मरणीय त्रिकालज्ञ ऋषिमहर्षियों ने अपने तपोबल के प्रभाव से उपरोक्त यह सब ही भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल प्रत्यक्ष जानकर तथा पूर्णी अनुभव करके इस महान् ज्योतिष शास्त्र की रचना की है। जिसकी सत्यता की साक्षी आज तक सारे संसार को स्वयं चन्द्र और सूर्य देते हुए अपनी जगमगाती हुई दिव्य ज्योति से प्रकाश का विकास प्रतिक्षण करते जा रहे हैं।
उसी ज्योतिष शास्त्र का छोटा सा यह महामुनि भृगु रचित ‘भृगुसूत्र’ नामक जातक ग्रन्थ जन्मपत्री का फल बताने में अद्वितीय है।
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