इस पृथिवी पर सम्यक् रूप से अनुकूलन के साथ निवास बनाने की विद्या को वास्तुविद्या कहते हैं। ‘समराङ्गणसूत्रधार’ नागक वास्तुग्रन्थ में कहा गया है कि पृथ्वी मुख्य वास्तु है, उस पर जो उत्पन्न होते हैं, उनके निवास (आश्रय) हेतु जो प्रासादादि बनाये जाते हैं, वे भी (गौण) वास्तु कहे जाते हैं-
‘भूरेव मुख्यं वास्तु तत्र जातानि यानिहि।
प्रासादादीनि वस्तूनि वस्तुत्वात् वास्तुसंश्रयात् ॥’
‘वास्तुविद्या’ को ही वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र तथा स्थापत्यवेद भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे Architecture कहा जाता है। अंग्रेजी में यह शब्द सोलहवीं शताब्दी में लैटिन भाषा के Architectura शब्द से लिया जाता है जो कि वास्तव में संस्कृत के ‘आर्किदतौर्य’ शब्द का अपभ्रंश है। यह शब्द आर्कि+दक्ष्+तौर्य से बना है। संस्कृत तौर्य का अर्थ शिल्प, चातुर्य, विद्या या कला आदि होता है। ‘दक्ष्’ धातु का अर्थ चतुरता प्रदर्शित करना तथा ‘आर्कि’ का अर्थ सूर्यपुत्र मनु होता है। इस शब्द का प्रयोग देवशिल्पी त्वष्टा के लिये भी हो जाता है, जिन्होंने मार्तण्ड सूर्य को काट-छाँटकर छोटा तथा सुन्दर बना दिया था, जिससे उनकी उग्रता में न्यूनता हो गयी थी और वे पृथ्वीवासियों के लिये सहन करने योग्य हो गये थे। इस प्रकार से जिस विद्या का प्रचार मनु के द्वारामानव- कल्याण के लिये सूर्य की ऊर्जा का समुचित उपयोग करते हुए मानवों को पृथ्वी पर बसाने में किया गया, उसे ‘आर्किदक्षतौर्य’ अर्थात् विवस्वान् मनु की दक्षता की विद्या कहा गया। इसी शब्द से घिसकर लैटिन तथा अंग्रेजी के ऊपर लिखे दोनों शब्द बन गये हैं।
वेदों में वास्तुशास्त्र – संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में गृह को वेश्म कहा गया है। गृह की प्राप्ति पुण्यों के फलस्वरूप होती है यह बात भी कही गयी है। इसी प्रकार वास्तोष्पति का भी उल्लेख किया गया है-
‘भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥’
इसी प्रकार वास्तोष्पति से स्वास्थ्यप्रद गृह तथा उन्नतिशील गृहहेतु प्रार्थना की गयी है-
‘वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवे भवा नः ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥








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