पं० रामयत्न ओझा विरचित फलित विकास विद्वानों के सम्मुख प्रस्तुत है । पं० ओझा जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित होने वाले विश्व पञ्चाङ्ग के आद्य संपादक एवं ज्यौतिष शास्त्र के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् थे ।प्रस्तुत ग्रन्थ अनेक वर्षो से अनुपलब्ध था । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नातक तथा ज्यौतिष विभाग में कार्यरत होने के नाते गुरुवर रामयत्न ओझा जी का नाम सुना था । उनकी विद्वत्ता की प्रशंसा भी अपने गुरुजनों से सुन रखी थी। उनके ग्रन्थों के अवलोकन से भी पता चलता है कि उनमें ज्यौतिष विद्या के चिन्तन की अपनी स्वयं की क्षमता विद्यमान थी । इस विभाग के विद्यार्थी होने के नाते ओझा जी हमारे गुरुओं की गुरु-परम्परा में आते हैं ।
एक दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्ववेद व्याख्याता पं० श्री जगन्नाथ त्रिपाठी ने मुझे बुलवाया और कहा कि मैने आज गङ्गा स्नान करते समय पञ्चाङ्गों का एक बण्डल जो बह रहा था, प्राप्त किया । मैं तुम्हें इस जल प्लावित गठरी को दे देना चाहता हूँ । क्योंकि यह तुम्हारे उपयोग की वस्तु है । मैं अत्यन्त प्रसन्न होकर उनके आशीर्वाद स्वरूप पञ्चाङ्गों का गट्ठर घर लाया और जो जल में भींग गया था उसे धूप में सुखाया । इसी बण्डल में फलित विकास की भी पुस्तक प्राप्त हुई जिसमें श्री रामयत्न ओझा जी का नाम लिखा था । मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा निश्चय किया कि इस पुस्तक का प्रकाशन कराऊँगा ।
इसी बीच चौखम्बा सुरभारती के प्रकाशक महोदय से भेंट हुई और गुरुवर के ग्रन्थ का नाम सुनकर उस पुस्तक को छापने के लिए तैयार हो गए। मैंने उस पुस्तक में कटे-फटे अंशो को लिख कर तथा ओझा जी की अपनी चिन्तन परम्परा को अक्षुण्य बनाए रखने के लिए पुस्तक का सम्पादन किया ।
श्री ओझा जी ने एक अनुभवी ज्योतिषी के रूप में सभी पक्षों को अध्ययन कर अपना अनुभव इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है । उन्होंने इस पुस्तक में स्पष्ट लिखा है “मैंने जितना अनुभव किया है
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