पञ्चस्वराः (Panchaswara) “पञ्चस्वरा” ग्रन्थ की संरचना अन्य समस्त ग्रन्थों से भिन्न हैं। इस शास्त्र में केवल अरिष्ट और निधन का ही मुख्य रूप से विचार किया गया है; जबकि अन्य ग्रन्थों में जातक से सम्बन्धित प्रायः सम्पूर्ण फल का विवेचन न्यूनाधिक रूप से किया गया है। पञ्चस्वरा ग्रन्थ के रचयिता श्री प्रजापति दास हैं। लेखक के द्वारा अपने काल का वर्णन नहीं किया गया है। ये दक्षिण भारतीय थे, क्योंकि इनके वचन ‘सद्वैद्यकुलजातेन’ के आधार पर वैद्यक वंश दक्षिण भारत में ही होते हैं। दास उपाधि बंगाल तथा उडीसा (उत्कल) में होती है। इस आधार पर इन्हें उत्कलीय भी माना जाता है। इस ग्रन्थ का प्रचलन पूर्व भारत में ज्यादा है। स्वरों की संख्या १६ होती है, जो निम्नवत् है-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। ये स्वरवर्ण हैं। ज्योतिष तथा तन्त्र इन दोनों ग्रन्थों में ५ स्वर का विशेष महत्त्व होता है। इस कारण से स्वरवर्ण के अन्तिम दो (अं, अः) स्वर त्याज्य है। चार स्वर ऋ, ऋ, ल, लृ क्लीब है। शेष१० स्वर में ५ हस्व और ५ दीर्घ हैं। ह्रस्व स्वर का ही विकसित रूप दीर्घ है। अतः ५ स्वर का विशेष स्थान ज्योतिषशास्त्र में होता है, जिसके आधार पर मानव-जीवन के सकल दुःख-सुख, शुभाशुभ का विचार सांगोपांग किया जाता है। इसी कारण यह ग्रन्थ पञ्चस्वरा नाम से प्रसिद्ध है।







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