गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पद् मार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
(विष्णु पु.)
हमलोगों का देश भारतवर्ष प्राचीन समय में आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था। यहाँ के रहने वाले आर्य कहे जाते थे जिनकी संस्कृति वैदिक संस्कृति कहलाती थी। ऐतरेय ब्राह्मण में वैदिक कालीन शासन व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। उस समय में कितने प्रकार की शासन व्यवस्था प्रचलित थी वह इस प्रकार है।
१. साम्राज्य – शत्रु को परास्त कर वहीं के किसी नागरिक को सत्ताधारी बना देना।
२. भोज्य- प्रजा की आवश्यकता का प्रबन्ध रखते हुए उसपर शासन करना।
३. स्वराज्य- इसमें सत्ताधारी वर्ग को अपने आत्मशुद्धि पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
४. वैराज्य- इसमें पूरी प्रजा ही मिलकर अपनी शासन व्यवस्था चलाती है।
५. पारमेष्ठेय- इसमें प्रजावर्ग राजा को और राजा प्रजावर्ग को परमेश्वर मानकर कार्य करते हैं।
६. महाराज्य- इसमें छोटे-छोटे राज्य अपनी इच्छा से एक होते हैं और एक शासनविधि के अन्तर्गत अपने को मानते हैं।
७. समन्तपर्यायी – जिसमें राज्यशासन सामन्तों के अधीन रहता है।
८. आधिपत्य – इसमें राज्य अधिकारियों के मतानुसार ही शासन व्यवस्था चलती है।
वैदिक काल में यह शासन तात्कालिक शिक्षा-व्यवस्था के कारण सफल हुआ। वैदिककालीन शिक्षा-पद्धति अत्यन्त उन्नत थी। उस समय अहिंसा-ब्रह्मचर्य-सत्य-अपरिग्रह-यम-नियम आदि की शिक्षा प्रारम्भ में ही दी जाती थी और आगे चलकर शिक्षा समाप्ति के पश्चात् ऐसे लोग ही राज्य शासन में आते थे। उस समय सभी लोग संस्कृत भाषा बोलते थे। बोल-चाल व व्यवहार में संस्कृत भाषा का ही प्रचलन था। उस समय मनुष्यजीवन के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े समस्याओं को लेकर उसके निदान खोजे गये और संस्कृत भाषा में ग्रन्थ रचे गये। उस काल में हमारे संस्कृत-साहित्य में वायुयान बनाने की विधि थी जैसे कि लंका से विजय प्राप्तकर श्रीराम के पुष्पक विमान से अयोध्या लौटने की कथा सर्वविदित है। लंका पर चढ़ाई के समय समुद्र में पुल बनाते समय (सेतु बन्धन) नल-नील ने पत्थर को जल के ऊपर तैरा दिया था। इससे सिद्ध होता है कि हमारे यहाँ प्राचीन काल में भी वायुयान बनाने से लेकर पानी में पत्थर तैरा देने तक की विधि प्रचलित थी। जो संस्कृत के यामल ग्रन्थों में समाहित की गई थी। इन यामलों की संख्या सात है-
(१) ब्रह्मयामल (२) विष्णुयामल (३) रुद्रयामल (४) आदियामल (५) स्कन्दयामल (६) कूर्मयामल (७) देवीयामल। ग्रन्थ निर्माण के उसी क्रम में राजाओं के दुर्गनिर्माण-युद्ध-जयपराजय सम्बन्धि विषयों के विचार हेतु अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ। उन्हीं में से एक नरपतिजयचर्या ग्रन्थ भी है जिसमें शकुन के आधार पर राजाओं के युद्ध में जय पराजय, दुर्ग पर विजय या उसका नाश, शत्रु सैन्य का पलायन आदि विषयों का विवेचन किया गया है। स्वरशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों में यह एक प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय हैं
Reviews
There are no reviews yet.