भारतीय सनातन धर्मानुयायी समाज में षडङ्ग वेद- विशेषतया ज्योतिष तया धर्मशास्त्र ये दो- हिन्दूधर्म एवं हिन्दू संस्कृति के आधार माने जाते हैं। वेद के इन दोनों बङ्गों में स्वभाव से ही समय-समय पर संशोधन, परिवर्धन और कदाचित् जन-कल्याणार्थ परिवर्तन भी होते आ रहे हैं। इससे मानव-धर्म (प्रमाद) वशं शुद्धः स्वल में अशुद्ध हो जाना भी स्वाभाविक ही है। विशेषकर यवन (मुसलमानी) शासन काल में ग्रहगोलगति की अज्ञानता के कारण भारतीय ज्योतिषग्रन्थकारों (श्रीपति, नीलकण्ठ आदिकों) ने भी फलित ज्योतिष (संहिता तथा जातक) में भ्रान्त यवनों द्वारा प्रचारित युक्तिहीन मत का भी समर्थन कर, उसे ग्रहण किया। इससे प्रत्यक्ष धर्मकृत्यों पर महान् श्राघात पहुंचा और अब भी पहुंच रहा है।
जहाँ अश्वष्ट फल (कर्म द्वारा स्वर्ग प्राप्ति अथवा मुक्ति आदि) में श्राप्त-वाक्य मात्र प्रमाण है, वहाँ तो शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण, विभिन्न मत हो सकते हैं। परन्तु ज्योतिषशास्त्र में तो दृष्ट अथवा अदृष्टफप्रबोधक वचनों की प्रत्यक्ष होने पर ही मान्यता दी गयी है। जिस प्रकार ‘यज्ञात् स्वर्गप्राप्तिः’, ‘काश्यां मरणान्मुक्तिः’ इत्यादि अदृष्टफलबोधक श्राप्तवाक्य को मानने वाले आस्तिक (धार्मिक) तथा नहीं मानने वाले नास्तिक (अधार्मिक माने जाते हैं, उस प्रकार ज्योतिषशास्त्रप्रतिपादित अदृष्टफलबोधक श्राप्तवाक्य के प्रत्यक्ष होने पर ही मान्यता दी जाती है। जब तक प्रत्यक्ष नहीं होता है तब तक न मातने पर कोई पाप नहीं होता है। जैसे गणित से सिद्ध होने पर भी जब तक प्रत्यक्ष नहीं होता है तब तक भारतीय जन तीर्थस्नान नहीं करते। तथा ‘चलत्यङ्गारके वृष्टिः’ अर्थात् ‘मङ्गल के राशिसवार में वृष्टि होती है’ इस आप्तवाक्य को भी जनता प्रत्यक्ष होने पर ही मानती है। केवल वाक्य पर भरोसा करके भारतीय कृषक धान रोपने के लिये बीजों को उखाड़ कर नहीं रखते। प्रत्यक्ष वृष्टि देखकर ही उन्हें उखाड़ते हैं। इसीलिये महर्षि नारद ने कहा है
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