मानव पुराकाल से जो कुछ सोचता और करता चला आ रहा है, उसकी सारी सोच और सम्पूर्ण क्रिया-कलाप आत्मतुष्टि के लिये ही होते थे, हो रहे हैं और होंगे। व्यक्ति की आत्मतुष्टि का परिवेश उसकी विवेकशीलता के परिवेश में निहित होता है। मानव की चैतस क्षुधा की तृप्ति को हम तुष्टि या सन्तोष कह सकते हैं। विश्व के अद्यावधि के वाङ्मय और मानव-समाज के वर्णित और प्रचलित क्रिया-कलापों का निरीक्षण करने से विदित होता है कि प्राचीन भारतीय मनीषी ऋषियों ने तुष्टि के दो खण्ड किये हैं-
१. ‘परा तुष्टि’ अर्थात् आध्यात्मिक सुख या सन्तोष, जिसमें स्व को जानने-देखने का अध्यवसाय किया जाता है। इस तुष्टि को उपनिषदों में पराविद्या कहा गया है। यहाँ भौतिकता गौण और आध्यात्मिकता प्रधान होती है।
२. ‘अपरा तुष्टि’ अर्थात् भौतिक सुख या सन्तोष, जिसमें राज-पाट, निधि-खजाना पाने का अध्यवसाय किया जाता है। इस तुष्टि को उपनिषदों ने ‘अपरा विद्या’ कहा है। यहाँ आध्यात्मिक भावना का अभाव प्राय और मोह-लोभादि का प्राधान्य रहता है।
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