‘गृहरत्नविभूषणम्’
(‘विजयलक्ष्मी नाम्नी भाषाटीका सहितम्’)
वन्दे गौरीसुतं रामं शारदां गिरिजापतिम् ।
क्रियते विदुषां प्रीत्यै गृहरत्नविभूषणम् ।।१ ।।
श्रीगणेशजी, श्रीरामजी, श्रीसरस्वतीजी, श्रीशङ्करजी को प्रणाम करके पण्डितों के प्रसन्नार्थ गृहरत्नविभूषण की मैं रचना करता हूँ।।१।।
गृहस्थस्य गेहं बिना सर्वकार्य,
न सिद्धयन्त्यतो गेहिनां चैव गेहम् ।
अवश्यं तु रम्यं पवित्रेऽतिभूमौ,
विनिर्माय कार्या क्रिया सर्वदैव ।।२।।
गृह के बिना गृहस्थ के समस्त कार्य सिद्ध नहीं होते, इसलिए गृहस्थों को चाहिये कि सुन्दर, रमणीय, पवित्र भूमि में गृहनिर्माण कर उसमें निवास कर के सर्वदा सब कार्यों को करे ।। २ ।।
सेवा पुनर्भूमनु सङ्गरादौ,
स्यात् काकिणीदानगृहे च नाम्नः ।
संस्कार-यात्रा करपीडन,
राशिर्विमृश्यः किल जन्मतो नुः ।।३।।
Reviews
There are no reviews yet.