प्राचीन भारतीय साहित्य अधिकतर प्रवन्धरूप में लिखा जाता था जिसमें आध्यात्मि कता और परम्परापोषक कर्मकाण्ड को हो अधिक महत्त्व दिया जाता था, ऐसे प्रबन्धरूपा-त्मक साहित्य में लौकिक जीवन तथा जन-साधारण का प्रतिबिम्ब झलकता नहीं दिखाई देता। ऋषियों और देवों के अतिरिक्त यदि नानव का रूप कहीं झलकता भी है तो ऐसे ऐश्वर्यशाली तथा उच्चकुलोद्भव का, जिससे जन-साधारण का दूर का भी सम्बन्ध नहीं। स्पष्ट है, ऐसे साहित्य (काव्य) से जन-साधारण लाभान्वित नहीं हो सकता था। जटिल लौकिक जीवन में व्यस्त उसके पास इतना समय कहाँ कि ऐसे विशालकाय साहित्य का सम्यक् अध्ययन कर आनन्द की उपलब्धि कर सके, और यदि प्रयत्न भी करे तो ऐसा जन-जीवन-शून्य साहित्य उसे रोचक हो कैसे लगता? ईसवी सन् के बाद भारतीयों का विदेशियों से सम्पर्क जब बढ़ने लगा तो कवियों में साहित्य को जन-जीवन के निकट लाने की प्रवृत्ति अत्यन्त बलवती हो उठी, परिणामस्वरूप साहित्य में लौकिक प्रेम तथा जन-साधारण के भी सूक्ष्म भार्वो की अभिव्यक्ति को स्थान मिलने लगा और काव्य का एक नवीन परिवर्तित रूप आविष्कृत हो उठा जिसे गीतिकाव्य या खण्डकाव्य की संज्ञा मिली। इसमें महाकाव्य के मानव जीवन की समग्रता को तिरस्कृत कर जीवन की एकदेशीयता का ही सन्निवेश किया गया। लोगों की सुविधा की दृष्टि से इसका आकार-प्रकार भी महाकाव्य की अपेक्षा छोटा रखा गया। इसमें महाकाव्य का सा विषय-वैविध्य न रखकर एक ही विषय को प्रधानता दी गई। ये संस्कृत के गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्धात्मक दो शैलियों में उपलब्ध होते हैं। मुक्तक गीतिकाव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतन्त्र होता है, उसे समझने में पूर्वापर-प्रसंग की अपेक्षा नहीं होती। वह एक ही पद्य रस की पूर्ण अभिव्यक्ति तथा विषय का सांगोपांग चित्रण करने में समर्थ होता है। गोवर्धनाचार्यकृत आर्यासप्तशती, अमरुकशतक आदि इसी प्रकार के मुक्तक गीतिकाव्य हैं। प्रवन्धात्मक गीतिकाव्य में एक ही विषय या कथानक का गीतिशैली में वर्णन होता है। कालिदास का मेघदूत और जयदेव का गीतगोविन्द आदि गीतिकाव्य इसी कोटि में आते हैं।
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