विश्व वाङ्मय का आरम्भ वेद से होना असन्दिग्ध है और उस वेदरूपी पुरुष के अंगभूत छः शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष में चक्षुरूप ज्यौतिषशास्त्र का स्थान निर्धारित किया गया है- ज्यौतिषं नेत्रमुच्यते। स्पष्ट है कि सभ्य समाज में कर्तव्याकर्त्तव्य का निर्धारण करने में शास्त्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है; अतः समाज के चक्षुरूप में शास्त्रों का स्थान प्रथमतः आता है। उन शास्त्रों का चक्षु वेद है और उसका भी चक्षु ‘ज्यौतिष’ है। स्पष्ट है कि जिस प्रकार नेत्रहीन पुरुष स्वकार्य सम्पादन में सर्वथा असमर्थ होता है, उसी प्रकार ज्यौतिषज्ञानविहीन पुरुष भी स्वकीय कर्तव्यों के निर्धारण में पूर्णतः अशक्य होता है। इसीलिए कहा भी गया है कि-यथा शिखा मयराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥ ‘ज्यौतिष’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? यह जिज्ञासा प्रथमतः उपस्थित होती है। इस जिज्ञासा का शमन साधारणतया ज्यौतिष शब्द की व्युत्पत्ति-ज्यौतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् से किया जा सकता है। फिर भी स्पष्टबोध हेतु निम्न कथन द्रष्टव्य है-विफलान्यन्यशास्त्र, ग विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शत्रं चन्द्रार्की यत्र साक्षिणौ ।। आशय यह है कि ज्यौतिष के अतिरिक्त समस्त शास्त्र ननु, न च के द्वारा सभी विषयों में मात्र विवाद को ही उत्पन्न करने वाले सिद्ध होते हैं। एकमात्र ज्यौतिषशास्त्र ही स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष शास्त्र है; साक्षात् सूर्य और चन्द्र इसके साक्षीस्वरूप है।
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