रजनीश एक वाकया सुनाते हैं, “मैं एक जर्मन विचारक हैरीगेल की किताब पढ़ रहा था, उसने छः वर्ष तक जापान में एक गुरु के पास धनुर्विद्या सीखी। धनुर्विद्या के माध्यम से जापान में ध्यान सिखाया जाता है। यह झेन फकीरों का एक रास्ता है, और इस विद्या में ध्यान बड़ी सुविधा से फलित होता है-लेकिन तीन साल गुजर गए, हैरीगेल को अपने गुरु से कुछ सीखना असंभव-सा मालूम होने लगा। वह ऐसी बात कहता था जो हैरीगेल की पकड़ में नहीं आती थी। गुरु कहता था, ‘लक्ष्य-भेद हमारा लक्ष्य नहीं है। तुम्हारा तीर ठीक जगह लग गया, इससे हमें कुछ लेना-देना नहीं… सवाल तो यह है कि ध्यान कहाँ घटित होता है। सवाल उस क्षण का है, जिसमें तीर छूटता है। ध्यान में छूट जाए तो तीर सफल हुआ, लगे या न लगे; अगर ध्यान में न छूटा, विचारणा में छूटा तो लग भी जाए, तो बेकार ।’ और गुरु का कहना था, ‘जब तुम तीर चलाओ, तो तीर तुम्हें नहीं चलाना चाहिए, वह चलाए परमात्मा । तुम सिर्फ तीर लेकर खड़े रहो।
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