आयुर्वेदीय ग्रन्थों में मानव मनोविज्ञान को दर्शाने वाला एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र कहा गया है। ‘न मूढ़ो लभते संज्ञां तावद्यावन्न पीड्यते ।’ – अर्थात् मूर्ख मनुष्य तब तक रोग दूर करने के लिए सचेष्ट नहीं होता, जब तक वह बली रोग से अधिक पीड़ित न हो जाए।
यह बात बहुत हद तक ज्योतिषीय क्षेत्र में भी अब तक के अनुभव में मैंने संसार में सत्य होती पाई है। जब तक पानी सिर से ऊपर न चला जाए, सामान्यतः तब तक कोई व्यक्ति अपनी या अपने प्रिय/सम्बन्धी की जन्मकुंडली लेकर ज्योतिषी के पास नहीं जाता और बहुधा तब तक स्थिति इतनी विकट/गम्भीर हो चुकी होती है कि शीघ्र सरलता से समस्या का निराकरण प्रायः असम्भव हो चुका होता है। यह भारी विडम्बना है।
समय रहते ही भावी समस्या के निराकरण का, या उससे सुरक्षित रहने का उपाय कर लिया जाना ही बुद्धिमत्ता है। वरना आग लग जाने पर तो मूर्ख भी उसे बुझाने के लिए भरसक प्रयत्न करता ही है। किंतु यह मात्र प्रतिक्रिया और परिस्थितियों का तक़ाज़ा होता है, दूरदर्शिता नहीं।
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