विश्व के सभ्य होने से पहले ही अंक ज्योतिष के ज्ञान से भारतीय ऋषि परिचित थे। शून्य से नौ अंक तक उन्होंने प्रत्येक अंक सृष्टि के अलग-अलग ग्रह से जोड़कर उसकी व्याख्या की। लगभग सौ वर्ष पहले पाश्चात्य रंग में ‘अंक विद्या’ भारत में लौटी। पाश्चात्य देशों के नियम उस समय, देश व काल के अनुसार अंक विद्या में साफ दिखाई देते हैं।
विवादास्पद पाश्चात्य ‘अंक मित्र-शत्रु सारणी’ तो लागू ही नहीं होती पर उसका प्रयोग किया जाता है।
अगर एक ग्रह ज्योतिष के अनुसार किसी ग्रह का मित्र, सम या शत्रु हैं तो वह अंक ज्योतिष में कैसे भिन्न हो सकता है ? अतः ज्योतिष के अनुसार ही अंक ज्योतिष में ‘मित्र-शत्रु सारणी’ का प्रयोग जीवन के विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग में लाना चाहिए।
इस पुस्तक में मैंने ‘वैदिक अंक ज्योतिष’ को वर्तमान परिवेश में प्रयोग हेतु बनाने का प्रयास किया है। यह पुस्तक इकाई पद्धति पर आधारित है। श्रृखला 2 की पुस्तक ‘वर्ग पद्धति व ‘अंक दशा फल’ के शोध कार्य पर अधारित है।
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