विख्यात सिद्धान्ततत्त्वविवेक नामक ज्योतिर्गणित ग्रन्थ की रचना भारत के समस्त सिद्धान्तज्योतिष तथा गोल के मर्मज्ञ मनीषीरत्न सुविख्यात आचार्य श्री कमलाकरभट्ट द्वारा शक 1580 में की गई। यह बात उन्होंने स्वकृत ग्रथोपसंहाराध्याय में कही है। इसी अध्याय में आचार्य ने अपनी कुल परंपरा तथा ग्रंथ की विशेषता के संबंध में कहा है। इसका अवलोकन प्रस्तुत टीका के अंतिम भाग में किया जा सकता है। आचार्य ने पारंपरिक ग्रंथ रचना विषय तथा सिद्धान्तों से हट कर नये प्रकार से ग्रन्थ के विषय तथा उसके सिद्धान्तों की रचना की। केवल श्री भट्टजी ही अकेले सिद्धान्त मर्मज्ञ हुए हैं जिन्होंने प्राचीन परम्परा से चली आ रही परम्परा तथा धारणाओं में कमियाँ तथा त्रुटियों को ईंगित कर उनको सही रूप से प्रदर्शित किया। ग्रंथ रचना इतने गूढ़ तथा विस्तृत रूप में की गई है कि इस ग्रन्थ की रचना के पश्चात् आज 488 वर्ष पर्यन्त केवल श्रीमान् गङ्गाधर शर्मा ने ही इसकी एक मात्र संस्कृत में संपूर्ण ग्रन्थ की टीका की। मध्य में म.म. सुधाकर द्विवेदी जी तथा श्री मुरलीधर ठक्कुर ने इसके कुछ-कुछ श्लोकों पर टिप्पणी लिखी।
श्री गंगाधर शर्माजी द्वारा लिखित टीका में अधिकांश श्लोकों का अर्थ/भाष्य नहीं दिया गया केवल उपपत्ति लिखि गई तथा अनेक स्थानों पर दोनों को मिलाकर लिखा, जिसके कारण यह टीका विद्वानों तथा छात्रों के लिए सरल बोधगम्य तथा अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुई। ग्रंथ के थोड़े-थोड़े अंश ही पूर्णरूप से समझे जा सके।
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