यह भूमिका लिखते समय मेरे दिल की कैफ़ियत बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब है, मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कि एक बेटा अपने पिता की बारात की अगवानी कर रहा हो। पहले की ही तरह इस बार भी मैंने गोस्वामी जी से अनुरोध किया था कि भूमिका लिखने जैसा महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व किसी योग्य विद्वान व्यक्ति के सुपुर्द किया जाये, किन्तु उनकी ज़िद्द और स्नेह के आगे मेरी एक न चली। क्योंकि मैं गोस्वामी जी को अपने बड़े भाई के समान मानता हूँ अतः उनके इस हुक्म को टालने की हिमाकत नहीं कर पाया, इसीलिए मैं पं. रूपचंद जोशी जी की सर्वव्यापी आत्मा से क्षमा माँगकर यह गुस्ताखी करने जा रहा हूँ।
मेरे यह टूटे-फूटे अल्फ़ाज किसी पुस्तक की भूमिका न होकर सिर्फ उस आधुनिक महाग्रंथ जिसे कि लाल किताब के नाम से याद किया जाता है, की शान में मेरे दिल के जज़्बात, और उस महाग्रंथ के रचयिता पं. रूपचंद जोशी जी को खिराज-ए-अक़ीदत हैं।
अपनी 45 साल की उम्र में मैंने आज तक कोई ऐसा महाग्रंथ नहीं देखा जिसकी भाषा और शैली इतनी सादी और सरल हो। लोग अक्सर यह कहते सुने गए हैं कि लाल किताब में अनगिनत ग्रंथिया है। मैं उन सबसे बड़े अदब और खलूस से यह अर्ज़ करना चाहूँगा कि ग्रंथिया लाल किताब में नहीं, खुद हमारे अपने दिल में हैं, क्योंकि हम लोग अपने अन्दर वो सरलता, वो सादगी, वो पाकीज़गी नहीं ला पाए जो कि इस ग्रंथ को समझने की पहली शर्त हैं। मेरे पास कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ कि ज्योतिष से अनजान व्यक्तियों ने इस किताब के उन रहस्यों को कुछ ही दिन पढ़ने के बाद खोलकर रख दिया जोकि आज तक भी पहली बने रहते। इसका कारण क्या था? कारण यह था कि वे सब लोग हृदय से निर्मल और सरल थे, और उनका कोई निहित स्वार्थ इससे जुड़ा हुआ नहीं था, अतः लाल किताब का आशीर्वाद उन्हें बहुत जल्दी प्राप्त हुआ।
लाल किताब के अरमान 1940, महान् पंडित रूपचंद जोशी जी की क़लम से निकली हुई पाँच दिव्य ज्योतियों में दूसरे नम्बर पर आती है। यह महान् किताब सन् 1940 में हज्जाज़ी प्रेस, लाहौर से प्रकाशित हुई थी। इस किताब के पब्लिशर पंडित जी के चचेरे भाई शर्मा गिरधारी लाल जी थे। इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि पं. आत्माराम शर्मा निवासी ग्राम रहन तहसील नूरपुर ज़िला कांगड़ा (तत्कालीन पंजाब) ने तैयार की। इसकी एक हजार प्रतियाँ प्रकाशित की गई थी तथा इस किताब का मूल्य एक रुपये 10 आने रखा गया था। उस समय यह किताब कलकत्ता फोटो हाउस, हाल बाज़ार, अमृतसर एवं कोतवाली बाज़ार, धर्मशाला ज़िला काँगड़ा (तत्कालीन पंजाब) के पास बिक्री के लिये उपलब्ध थी।
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