Hastakshar vigyan
जिस प्रकार हमारा हृदय दर्पण की तरह होता है, जिसमें हमारा वास्तविक रुप प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रकार हमारे हस्ताक्षर भी हमारे वास्तविक रुप को प्रतिबिम्बित करते हैं । हस्त + अक्षर से मिलकर हस्ताक्षर शब्द बना । सभ्यता के प्रारंभिक काल में जब अक्षरों की उत्पत्ति नहीं हुई थी, तब लोग अंगूठे की छाप का प्रयोग करते थे, क्योंकि संपूर्ण विश्व में मनुष्य की चाहे जितनी नस्लें, जाति -प्रजाति हों सभी के अंगूठों की छाप एक समान नहीं होती। ज्यों-ज्यों मनुष्य सभ्यता की ओर विकसित होता चला गया, उसे अक्षरों का ज्ञान होने लगा और वह विकसित होता चला गया, और विचारों की अभिव्यक्ति का यह साधन उसे ऐसा रास आया कि युगों- युगों से उसका यह अक्षर ज्ञान प्रगतिशील होता गया और मानव ने इसमें पारंगतता हासिल कर ली ।
उसका यह अक्षर ज्ञान संपूर्ण विश्व भर में अनेक रूपों में, भाषाओं में विद्यमान है। प्रत्येक मनुष्य की पहचान उसके नाम से होती है जो समाज में उसकी पहचान होता है। अपने इसी नाम को जब वह लिखित रूप में अभिव्यक्त करता है, तो अपना नाम साधारण रुप में न लिखकर हस्ताक्षर के रुप में परिवर्तित कर लेता है। हृदय हमेशा मानव को सजाता और संवारता रहता है । मन की यह फुलवारी प्रत्येक स्थिति में अपने आप में हर स्थिति और परिस्थिति के वशीभूत होती हुई फलती-फूलती रहती है । इसी का सुंदर स्वरुप हस्ताक्षरों के रुप में प्रकट हो जाता है, और यह हस्ताक्षर इतने निर्दयी होते हैं, कि अपनी कथा और वेदनाएं, उल्लास और उपहास, कुंठाएं व मान-अपमान एवं सारी पीड़ाएं इतिहास के रुप में अभिव्यक्त कर देते हैं ।









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